Book Title: Aradhanasamucchayam
Author(s): Ravichandramuni, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 328
________________ आराधनासमुच्चयम् ३१९ मुनिराज के आगमन की वार्ता सारे नगर में फैल गई, जैसे वायु के झकोरे से पुष्पों की सौरभ । मुनिराज के दर्शन के लिए प्रजा उमड़ पड़ी, उनके जय - जयकार के शब्द से आकाश गूंज उठा। प्रजा को उत्साहपूर्वक मुनिवन्दना के लिए जाते देखकर राजा भी दर्शन के लिए आतुर हो उठा। उसने तत्काल मंत्रियों को बुलाया और बोला - "मंत्रिगण ! हमारे नगर में महामुनिराज का आगमन हुआ है, उनके दर्शनों से अपने नेत्रों को सफल करना चाहता हूँ," मंत्रियों ने कहा, 'अच्छा'। मंत्रियों के साथ राजा मुनिराज के दर्शन के लिए गया। मुनियों को ध्यान में लीन देखकर वह बहुत प्रसन्न हुआ। उसने क्रम से एक-एक मुनि को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया। सन मुनि अपने आचार्य की आज्ञानुसार मौन रहे। किसी ने भी राजा को धर्मवृद्धि नहीं दी। राजा उनकी वन्दना कर महल लौट चले। लौटते समय मंत्रियों ने उनसे कहा - "महाराज ! देखा साधुओं को ? बेचारे बोलना तक भी नहीं जानते, सब नितान्त मूर्ख हैं। यही कारण है कि सब मौनी बने बैठे हैं। उन्हें देखकर सर्व साधारण तो यह समझेंगे कि ये सब आत्मध्यान कर रहे हैं। बड़े तपस्वी हैं। पर इनका यह ढोंग है। अपनी पोल न खुल जाये, इसलिए इन्होंने लोगों को धोखा देने को यह कपटजाल रचा है, महाराज ! ये दम्भी हैं।" इस प्रकार त्रिलोकपूज्य और परम शान्त मुनिराजों की निन्दा करते हुए ये मलिन-हृदय मंत्रीगण राजा के साथ आ रहे थे कि रास्ते में इन्हें एक मुनि मिल गये, जो शहर से आहार करके वन की ओर आ रहे थे। मुनि को देखकर इन पापियों ने उनकी हँसी की। महाराज, देखिये वह एक बैल और पेट भरकर चला आ रहा है। श्रुतसागर मुनि ने मंत्रियों के निन्दावचनों को सुन लिया। उनका कर्त्तव्य था कि वे शान्त रह जाते, पर वे निन्दा न सह सके। कारण वे आहार के लिए शहर में चले गये थे। इसलिए उन्हें अपने आचार्य महाराज की आज्ञा मालूम नहीं थी। यह समझ कर कि इन मंत्रियों को अपनी विद्या का बड़ा अभिमान है, मैं उसे चूर्ण करूँगा, मुनि ने उनसे कहा - "तुम व्यर्थ क्यों किसी की बुराई करते हो, यदि तुम में कुछ विद्या हो, आत्मबल हो तो मुझसे शास्त्रार्थ करो। फिर तुम्हें मालूम पड़ेगा कि बैल कौन है ?" वे भी राजमंत्री थे। उस पर दुष्टता उनके हृदय में कूटकर भरी हुई थी, फिर वे कैसे एक अकिंचन साधु के वचनों को सहन कर सकते थे। उन्होंने मुनिराज के साथ शास्त्रार्थ करना स्वीकार कर लिया। अभिमान के वश उन्होंने कह तो दिया कि हम शास्त्रार्थ करेंगे पर जब शास्त्रार्थ हुआ तब उन्हें जान पड़ा कि शास्त्रार्थ करना बच्चों का खेल नहीं है। मुनिराज ने स्याद्वाद के बल से बात-की-बात में चारों मंत्रियों को पराजित कर दिया। विजयलाभ कर श्रुतसागर मुनिराज अपने आचार्य के पास आये और अपनी सारी घटना कह सुनाई, जिसे सुनकर आचार्य खेद के साथ बोले - "हाय ! तुमने उनके साथ शास्त्रार्थ करके अपने हाथों से सारे संघ का घात किया है।" गुरु के वचन सुनकर श्रुतसागर मुनि ने कहा- “गुरुदेव ! अब मुझे क्या करना चाहिए जिससे संघ पर आपत्ति न आवे।" गुरुराज ने कहा - "हे शिष्य ! जिस स्थान पर तुमने मंत्रियों के साथ विवाद किया है, उसी स्थान पर जाकर रात्रि व्यतीत करो तो संघ का उपद्रव मिट सकता है, अन्यथा नहीं।" गुरुआज्ञा शिरोधार्य कर श्रुतसागर मुनि उसी स्थान पर जाकर कायोत्सर्ग पूर्वक खड़े हो गये।

Loading...

Page Navigation
1 ... 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376