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आराधनासमुच्चयम् ३२९
जिस स्थान पर मुनिराज ध्यान कर रहे थे, उसको चारों तरफ काष्ठ एवं काँटों की बाड़ से घेर कर विशाल मंडप बनाया। वेदों के जानकार बड़े-बड़े विद्वान् यज्ञ कराने लगे ।
वेदध्वनि से यज्ञ मंडप गूँज उठा । बेचारे निरपराध पशुओं की आहुतियाँ अग्नि में दी जाने लगीं। देखते-देखते पशुओं की करुणामय चीत्कार के साथ दुर्गन्धित धुएँ से आकाश आच्छादित हो गया ।
सात सौ मुनियों पर घोर उपसर्ग हो रहा था। परन्तु उन शान्ति की मूर्तियों ने इसे अपने किये कर्मों का फल समझकर बड़ी धीरता के साथ सहन करना प्रारम्भ किया। वे मेरु के समान निश्चल होकर एकचित्त से परमात्मा का ध्यान करने लगे।
मिथिलानगरीस्थ श्रुतसागर मुनि के मुखारविन्द से अकम्पनाचार्य व संघ पर घोर उपसर्ग जानकर पुष्पदन्त क्षुल्लक ने इसे दूर करने का उपाय पूछा। निमित्तज्ञ मुनिश्री श्रुतसागर ने कहा, "विक्रियाऋद्धिप्राप्त विष्णुकुमार मुनि इस पर्व को दूर करने में समर्थ है, दूसरा कोई नहीं ।" इस प्रकार के वचन सुनकर पुष्पदन्त शीघ्र ही विष्णुकुमार मुनि के पास आये और उन्हें सारे समाचार कहे ।
विष्णुकुमार मुनि इतने निस्पृह थे कि उन्हें यह भी ज्ञात नहीं था कि उन्हें विक्रिया ऋद्धि प्राप्त हुई है। उन्होंने परीक्षा के लिए हाथ पसारा तो वह लवणसमुद्र में गिरा ।
सर्वप्रथम विष्णुकुमार मुनि पद्म राजा के पास आकर बोले, "तुमने अपने नगर में यह क्या अनर्थ किया है, निष्परिग्रही मुनियों पर घोर उपसर्ग और तुम अपनी आँखों से देख रहे हो; शीघ्र ही उपसर्ग को शान्त करो, नहीं तो घोर विपत्ति का सामना करना पड़ेगा।"
विष्णुकुमार मुनि की बात सुनकर पद्म राजा ने कहा- "गुरुदेव ! मैं सात दिन का राज्य इन मंत्रियों को दे चुका हूँ। इसलिए मैं कुछ नहीं कर सकता। सात दिन तक ये जैसा करेंगे वह मुझे सहन करना होगा । क्योंकि मैं वचनबद्ध हो चुका हूँ। अब तो आप ही उपसर्ग दूर कर सकते हैं।"
विष्णुकुमार मुनि विक्रिया ऋद्धि से वामन ब्राह्मण का रूप धारण कर मधुरता से वेदध्वनि का उच्चारण करते हुए मंडप में पहुँचे। उनका मनोज्ञ सौन्दर्य और मनोहर वेदोच्चार सुनकर सब बड़े प्रसन्न हुए । बल तो उन पर इतना मुग्ध हुआ कि उसके आनन्द का कुछ पार नहीं रहा ।
उसने बड़ी प्रसन्नता से कहा- "महाराज ! आपके पधारने से यज्ञ की अपूर्व शोभा हुई है, मैं बहुत खुश हूँ । आपकी जो इच्छा हो माँगिये, इस समय मैं सब कुछ देने को समर्थ हूँ ।"
विष्णुकुमार मुनि ने कहा- "मैं एक गरीब ब्राह्मण हूँ। मुझे केवल तीन पैंड पृथ्वी की आवश्यकता है । यदि कृपा करके इतनी भूमि मुझे प्रदान कर दें तो मैं टूटी-फूटी झोपड़ी बना कर रह सकूँगा । स्थान की निरापदता से अपने समय को वेदपाठ से व्यतीत करूँगा ।