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आराधनासमुच्चयम् ३२७
है आदमी। अतः शब्दों के उच्चारण के अनंतर मन में जो अभिप्राय उत्पन्न होता है, उसे अर्थ कहते हैं। गणधरादि रचित सूत्रों के अर्थ का यथार्थ रूप से विवेचन करना, आगमानुकूल अर्थ करना अर्थ शुद्धि है। केवल सूत्रों का विवेचन मात्र नहीं क्योंकि केवल विवेचन से विपरीत अर्थ भी हो सकता है, जैसे " सैन्धवमानय" इस शब्द का विवेचन है, 'सैन्धव को लाओ', 'घोड़ा लाओ' यह अर्थ भी हो सकता है और नमक लाओ, सैन्धव देश की कोई वस्तु लाओ, यह अर्थ भी हो सकता है, अतः शब्दों का प्रकरणवश निर्दोष अर्थ करना ही अर्धशुद्धि है, अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो जाता है। जैसे क्षीरकदम्ब के पुत्र पर्वत ने अर्थ शुद्ध न पढ़कर विपरीत अर्थ करके हिंसा का प्रचार किया तथा संसार में हिंसामय धर्म की प्रवृत्ति की और मरकर नरक में गया। अतः एक शब्द में अनेक अर्थ होते हैं, उनका युक्ति और आगमानुसार शुद्ध अर्थ करना अर्थशुद्धि है।
उभय शुद्धि - व्यंजन की शुद्धि और उसके वाच्य अभिप्राय की शुद्धि को उभय शुद्धि कहते हैं, जैसे कोई पुरुष सूत्र का अर्थ तो नेक कहता है, परंतु सूत्र उच्चारण ठीक नहीं करता। दीर्घ के स्थान में हस्व का और ह्रस्व के स्थान में दीर्घ का तथा संयुक्त अक्षरों को तोड़कर और असंयुक्त अक्षरों का संयुक्त उच्चारण करता है। इसलिए व्यंजन शुद्धि कही गई है। कोई पुरुष शब्दों का उच्चारण शुद्ध करता है, परंतु अर्थ की प्ररूपणा विपरीत करता है, इसलिए अर्थशुद्धि का उल्लेख किया है। तीसरा मानव सूत्र का उच्चारण भी अशुद्ध करता है और उसका अर्थ भी अंटसंट बकता है। इन दोनों दोषों को दूर करने के लिए उभय शुद्धि का निरूपण किया है, जैसे एक राजा ने हजार स्तंभ का एक मंदिर देखकर अपने कर्मचारियों को आदेशपत्र लिख कर दिया " महास्तंभसहस्रस्य कर्त्तव्यः संग्रहो ध्रुवं" जिसको पढ़ते समय पाठक ने स्तंभ के स्थान पर स्तभ पढ़ा और उसका अंटसंद अर्थ किया बकरा और कह सुनाया राजाज्ञा है एक हजार बकरों का संग्रह करने की । जब राजा के समक्ष एक हजार बकरे लाये गये तो उन्हें देखकर राजा सिर से पैर तक जल उठे। उन्होंने क्रोधित होकर कहा- मैंने तो तुम्हें एक हजार खंभे एकत्र करने के लिए कहा था, तुम लोगों ने यह क्या किया ? राजा की क्रोधित दृष्टि से भयभीत होकर सर्व कर्मचारियों ने राजा के चरणों में गिर कर प्रार्थना की कि यह हमारा दोष नहीं है, यह दोष है - पत्रवाचक का। राजा ने पत्रवाचक को दंड दिया। अतः शास्त्रों के पठन पाठन एवं अर्थ करते समय प्रमाद नहीं करना चाहिए। क्योंकि प्रमाद वा अज्ञानवश व्यंजन, अर्थ और उभय ( व्यंजन और अर्थ दोनों ) शुद्ध नहीं पढ़ने से अनर्थ होता है और इसी से अनेक विसंवादों की उत्पत्ति होती है, इसीलिए पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि में लिखा है कि शास्त्रों का अर्थ करने वाला युक्ति और आगम में कुशल तथा शास्त्रों की परम्परा को जानने वाला होना चाहिए ।
कालाध्ययन
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शास्त्रों का अध्ययन संध्याकाल, सूर्योदय के दो घड़ी पूर्व, दो घड़ी पश्चात् तथा सूर्यास्त के दो घड़ी पूर्व, दो घड़ी पश्चात्, मध्याह्न काल के दो घड़ी पूर्व और दो घड़ी पश्चात् के काल को छोड़कर करना