Book Title: Aradhanasamucchayam
Author(s): Ravichandramuni, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 327
________________ आराधनासमुच्चयम् ७३१८ रहित हुए हैं, आपने ही सत्य आत्मस्वरूप को समझा है। इतने वैभव को लात मार कर परम वैराग्यमय तप को धारण किया है। हे दयासागर ! मैं तो सचमुच जन्मान्ध महामूर्ख हूँ। इसीलिए मुनिमुद्रा को धारण करके भी अपनी स्त्री की ममता में फंसा रहा | बारह वर्ष तक आत्मा को कष्ट पहुँचाने के सिवाय कुछ नहीं किया। केवल शरीर का शोषण किया। आत्मतत्त्व को नहीं पहचाना, स्वामी ! मैं बहुत अपराधी हूँ इसलिए हे कृपासिन्धु ! पापों का प्रायश्चित्त देकर मुझे पवित्र कीजिए।" पुष्पडाल के भावों की पवित्रता जानकर वारिषेण मुनिराज बोले, “धीर ! इतने दुखी मत बनो। मिथ्यात्व रूप पाप कर्म के उदय से ज्ञानी जन भी हतबुद्धि हो जाते हैं। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।" तदनन्तर पुष्पडाल को प्रायश्चित्त देकर शुद्ध किया और धर्मोपदेश देकर पुन: चारित्र में स्थिर किया। ___ धन्य हैं वे सम्यग्दृष्टि महापुरुष जो वारिषेण मुनिराज के समान भव्यात्माओं को सम्यग्दर्शन और चारित्र में दृढ़ कर स्थितीकरण अंग का पालन करते हैं। विष्णुकुमार मुनि धर्म और धर्मात्माओं के प्रति अनुराग रखना, स्नेह करना वात्सल्य अंग है। यह वात्सल्य अंग भी निश्चय और व्यवहार के भेद से दो प्रकार का है। चतुर्गति रूप संसार समुद्र से पार करने के लिए नौका के समान मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका रूप चार प्रकार के संघ के प्रति स्नेह, अनुराग रखना जैसे सद्य:प्रसूता गाय अपने बछड़े से अनुराग रखती है। सम्यग्दृष्टि जीव प्रिय वचनों के साथ, निश्छल मन से, अत्यंत श्रद्धा-भक्ति से धार्मिक जनों में अनुराग रखता है, यह व्यवहार वात्सल्य अंग है। जब व्यवहार वात्सल्य से जिनधर्म में दृढ़ता आ जाती है, तब मिथ्यात्व, रागादि सारे शुभ, अशुभ बाह्य पदार्थों में प्रीत का परित्याग कर रागादि विकल्पों की उपाधि से रहित परम स्वरूप के अनुभव से उत्पन्न सदा आनंद रूप सुखमय अमृत के आस्वादन के प्रति अनुराग - प्रीति होती है, वह निश्चय वात्सल्य है। व्यवहार वात्सल्य कारण है और निश्चय वात्सल्य कार्य है। जैसे कारण के बिना कार्य नहीं होता वैसे ही व्यवहार के बिना निश्चय नहीं होता। यह वात्सल्य अंग सम्यग्दर्शन का अंग है। "लक्षणं च गुणाश्चाङ्ग शब्दाश्चैकार्थवाचका;" लक्षण, गुण और अंग ये शब्द एकार्थवाची हैं। अंग का अर्थ वात्सल्यगुण, वात्सल्य का लक्षण है तथा यह सम्यग्दर्शन का कारण है। एकदा देश-देशान्तर में धर्मामृत की वर्षा से भव्यजन शस्य को पुष्ट करते हुए अकम्पनाचार्य सात सौ मुनियों के साथ उज्जयिनी नगरी के ब्रह्म उद्यान में जाकर ठहरे। भविष्य में होने वाली अनिष्ट की आशंका से आचार्यश्री ने सर्वसंघ को आदेश दिया कि सर्व मुनिराज मौन धारण कर ध्यान मग्न हो जाय, किसी से वार्तालाप न करें। अन्यथा संघ पर घोर उपसर्ग आयेगा। गुरु-आज्ञा को शिरोधार्य कर सर्व मुनिगण ध्यान लीन हो गए। ठीक ही है, वही शिष्य प्रशंसा के पात्र होते हैं जो गुरु-आज्ञा का पालन करते हैं।

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