Book Title: Aradhanasamucchayam
Author(s): Ravichandramuni, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 317
________________ आराधनासमुच्चयम्.३०८ चलते-चलते दण्डक वन में पहुंचते हैं और मुनिराज को आहार दान कर महान् पुण्य उपार्जन करते हैं पुण्य-पाप, सुख-दुःख, आपत्ति-वित्ति, हर्ष-क्षोभ में मानव कभी सुखी. कभी दुःखी होता है। इन पुण्य-पाप की गलियों में भटकते राम लक्ष्मण एक अटवी में पहुंचते हैं। वहाँ उनको सूर्यहास खड्ग की प्राप्ति, शंभु का मरण तथा चन्द्रनखा का राम पर मोहित होना, खरदूषण का युद्ध और युद्ध में आये हुए रावण का सीता पर मोहित होकर सीता का हरण कर लेना आदि घटनायें घटती हैं। सीता पर बज्रपात हो गया, वह बिलख-बिलख कर रो रही है। जिनेन्द्र देव के सिवाय कोई रक्षक नहीं है। तीन खण्ड का अधिपति अपने वैभव का प्रलोभन देता है। प्रलोभन से जब सीता को लुभा नहीं सका, तब भयंकर रूप धारण कर जितना हो सका, सीता को भयभीत करने का प्रयत्न किया, परन्तु सीता के मन मेरु को विचलित नहीं कर सका। सीता अपने शील संयम पर अडिग रही। तीन खण्ड के राज्य का प्रलोभन उसको अपने व्रत से च्युत नहीं कर सका ! सीता की निर्भयता से श्री श्रुतसागर ने नि:कांक्षित अंग में उसका नामोल्लेख किया है। जिसका हृदय सम्यग्दर्शन से प्लावित है, संसार-शरीर-भोगों से जिसको विरक्ति है, नि:कांक्षित अंग में मन रंगा हुआ है, उसको सांसारिक भोगों का प्रलोभन झुका नहीं सकता। स्वभाव से अपवित्र परंतु रत्नत्रय से पवित्र मुनिराज के मलिन शरीर को देखकर ग्लानि नहीं करना, धर्म भावना से प्रेरित होकर, उनकी वैयावृत्ति करना निर्जुगुप्सा अंग है। इसका दूसरा नाम निर्विचिकित्सा भी है। चिकित्सा द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार की है। उस चिकित्सा का नहीं होना निर्विचिकित्सा है। भेदाभेद रत्नत्रय के धारक भव्य जीवों के दुर्गन्धित मल-मूत्र आदि को देखकर उससे ग्लानि नहीं करना, उनकी वैयावृत्ति उनके दुःख को दूर करने की चेष्टा करना द्रव्य निर्विचिकित्सा है। क्षुधादि परिषहों के आने पर धर्म से च्युत नहीं होना और सांसारिक अभ्युदयों के लिए जिनधर्म से विमुख होकर अन्य धर्म की प्रशंसा नहीं करना भाव निर्विचिकित्सा है। ___ निश्चय और व्यवहार के भेद से निर्विचिकित्सा दो प्रकार की है, द्रव्यसंग्रह में लिखा है कि सारे रागद्वेष आदि विकल्प - रूप तरंगों का त्याग कर, निर्मल आत्मानुभूति लक्षण निज शुद्धात्मा में स्थिर होना निश्चय निर्विचिकित्सा है तथा मलमूत्र आदि से ग्लानि नहीं करना व्यवहार निर्विचिकित्सा है। उद्दायन राजा सौधर्म स्वर्ग में देवसभा चल रही थी और इन्द्र महाराज देवों को सम्यग्दर्शन की महिमा समझा रहे थे - अहो ! सम्यग्दर्शन में आत्मा का कोई अपूर्व सुख होता है। इस सुख के सामने स्वर्ग के वैभव की कोई गिनती नहीं है, इस स्वर्ग लोक में साधु दशा नहीं हो सकती, परन्तु सम्यग्दर्शन की आराधना तो यहाँ पर भी हो सकती है।

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