Book Title: Aradhanasamucchayam
Author(s): Ravichandramuni, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 306
________________ आराधनासमुच्चयम् २९७ है अर्थात् हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती। चारित्रयुक्त तप करने वाले प्राणी के तो चारित्र आराधना होती है, परन्तु जिनके चारित्र नहीं है वे उपवास आदि के द्वारा शरीर को कृश करते हैं, उनके चारित्र आराधना नहीं है। क्योंकि चारित्रवान के ही शरीर और चित्त के दर्प का निरोध करने रूप तप अवश्य पाया जाता है। इसलिए विद्वानों (ज्ञानीजनों) ने तपाराधना के पूर्व ही चारित्र आराधना का कथन किया है। तनुचेतोदर्पहरं तपोऽस्त्यसंयमवतोऽप्यशुद्धनयात् । यत्तत्समुक्तमार्यैरार्याः पश्चार्धमाचार्यैः || २३२ || अन्वयार्थ अशुवनयात् - अशुद्धनय की अपेक्षा । असंयमवतः - असंयमी के। अपि - भी। तनुचेतोदर्पहरं शरीर और एन के दर्प का नाशक बद जो तपः है। उस तप की अपेक्षा | आर्यैः - श्रेष्ठ आचार्यैः - आचार्यों ने पश्चार्धं तप आराधना के बाद | तत् - चारित्र । अस्ति I आराधना । समुक्तं कही है, ऐसा। आर्या आर्यों का मत है। - - - - किन्हीं आचार्यों ने ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना, तपाराधना उसके बाद चारित्र आराधना का कथन किया है | चारित्र भक्ति में भी इसी प्रकार का कथन है। इसलिए कहा गया है कि अशुद्ध नय की अपेक्षा असंयमी के तप आराधना कहीं है । अत: चारित्र पूर्व तप आराधना का कथन आचार्यों ने कहा है । परन्तु इस ग्रन्थ में प्रथम सम्यग्दर्शन आराधना, द्वितीय ज्ञानाराधना, तृतीय चारित्र आराधना और चतुर्थ तप आराधना कही है। - इस ग्रन्थ में आचार्यदेव ने कहा है कि यद्यपि मिथ्यादृष्टि मुनिराज ११ अंग के पाठी हो सकते हैं तथा असंयमी भी तपश्चरण करता है, इसलिए किन्हीं - किन्हीं आचार्यों ने असंयमी के भी तप आराधना स्वीकार की है। परन्तु वास्तव में मिथ्यादृष्टि के दर्शनादि आराधना नहीं हैं। सम्यग्दृशोऽप्यविरतस्यास्ति तपो नैव शुद्धनयदृष्ट्या । तनुचेतोदण्डनमपि पूर्वार्जितपापफलमेतत् ||२३३|| - अन्वयार्थ शुद्धनयदृष्ट्या - शुद्धनय की दृष्टि से । अविरतस्य अविरत के । सम्यग्दृश: • सम्यग्दृष्टि के । अपि - भी। तपः तप । नैव- नहीं। अस्ति है। इसलिए | एतत् तनुचेतोदण्डनं शरीर और मन के दर्प का निरोध करना । अपि भी, उसके । पूर्वार्जितपापफलं पूर्व में उपार्जित पाप का फल है। यह । 1 - - - अर्थ- शुद्धनय की दृष्टि से अविरत सम्यग्दृष्टि के भी तप नहीं है, मिथ्यादृष्टि के तो तप हो नहीं सकता । मिथ्यादृष्टि जो शरीर और मन का विरोध करता है, वह उसके पूर्वोपार्जित पाप का फल है अर्थात् पूर्वोपार्जित पाप के फल से इन्द्रिय विषय भोग प्राप्त नहीं होते हैं, तब शांतिपूर्वक सहन करता है, उससे अकामनिर्जरा होती है, इसलिए यह बाल तप है, वास्तविक तप नहीं है। इसलिए कहा गया है कि यह पूर्वोपार्जित पाप का फल है।

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