Book Title: Aradhanasamucchayam
Author(s): Ravichandramuni, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 307
________________ आराधनासमुच्चयम् - २९८ आराधयता चरितं समस्तमाराधितं भवेनियमात्। आराधयतां शेषं चरितं भजनीयमित्याहुः ॥२३४ ।। अन्वयार्थ - चरितं - चारित्र की। आराधयता - आराधना करने वाले के द्वारा । नियमात् - नियम से। समस्तं - सारी (ज्ञानादि सम्पूर्ण आराधना)। आराधितं - आराधित। भवेत् - होती हैं। परन्तु शेषं - शेष आराधना की। आराधक्तां - आराधना करने वाले के। चरितं - चारित्र आराधना। भजनीयं - भजनीय है। इति - इस प्रकार आचार्यों ने। आहुः - कहा है। अर्थ - जो मानव चारित्र की आराधना करता है, उसके नियम से दर्शन आदि चारों आराधना होती है। क्योंकि ज्ञान, दर्शन, तपश्चरण के बिना चारित्र का पालन नहीं होता है। परन्तु जो दर्शन आदि की आराधना करता है, उसके चारित्र की आराधना होती भी है और नहीं भी होती है। क्योंकि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की आराधना तो अविरत सम्यग्दृष्टि के भी होती है, परन्तु चारित्र की आराधना और तप की आराधना देशविरत से ही प्रारंभ होती है, इसलिए कहा जाता है कि शेष की आराधना करने वाले के चारित्र आराधना भजनीय होती है। शुद्धाशुद्धनयद्वयमाश्रित्यात्यन्तमागमे निपुणाः। कथयन्त्वस्याभावं ज्ञात्वार्या ये गुणसमग्राः ॥२३५ ।। अन्वयार्थ - ये - जो। आगमे - आगम में। अत्यन्तं - अत्यन्त। निपुणा: - निपुण हैं। गुणसमग्रा: - गुणों में श्रेष्ठ । आर्या: - महान् आचार्य। अस्य - इस कथन के। अभावं - अभाव को। ज्ञात्वा - जानकर । शुद्धाशुद्धनयद्वयं - शुद्ध और अशुद्ध दोनों नयों का। आश्रित्य - आश्रय लेकर। कथयन्तु - कथन करें। अर्थ - आचार्यदेव आराधक जन के स्वरूप का और आराधनाओं का कथन करके अन्तिम क्षमायाचना करते हैं। जो महान् आचार्य हैं, जो आगम में अत्यन्त निपुण हैं, सारे गुणों से समृद्ध हैं, परिपूर्ण हैं, वे आचार्य शुद्ध और अशुद्ध दोनों नयों का आश्रय लेकर आराधनाओं का कथन करें। अर्थात् किस गुणस्थान से कौन सी आराधनाओं का प्रारंभ होता है, किस गुणस्थान तक उनका अस्तित्व है, इन आराधनाओं का आराधक कौन है, ऐसा शास्त्रों के द्वारा जानकर वर्णन करें। वस्तु का कथन शुद्ध और अशुद्ध दोनों नयों के आश्रित है। निश्चय नय भी शुद्ध और अशुद्ध के भेद से दो प्रकार का है अथवा शुद्ध नय निश्चय नय है, अशुद्ध नय व्यवहारनय है । व्यवहार और निश्चय दोनों की परस्पर सापेक्षता रखते हुए जो वस्तु का कथन किया जाता है, वही वास्तव में वस्तु का स्वरूप होता है, अत: एक नय को गौण और एक नय को मुख्य करके वस्तु का कथन करना चाहिए। निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं, अत: एक नय की अपेक्षा कथन करना युक्त नहीं है।

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