Book Title: Aradhanasamucchayam
Author(s): Ravichandramuni, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 299
________________ आराधनासमुच्चयम् -२९० उपाध्याय परमेष्ठी के अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ; अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ; प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ इन १२ कषायों का उदय तो नहीं है। परन्तु संज्वलन कषाय है, उसके भी वशीभूत नहीं होते हैं, वे उपाध्याय परमेष्ठी होते हैं, अत: उपाध्याय परमेष्ठी का विशेषण है कषाय रूपी शत्रुओं के विजेता। जो अपनी शक्ति के अनुसार (ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के अनुसार) स्वसमय और परसमय के व्याख्याता होते हैं। स्वसमय का अर्थ है जिनेन्द्रकथित शास्त्र और परसमय है अन्य तीन सौ त्रेसठ पाखण्डीजन के द्वारा रचित मिथ्याशास्त्र ! इन स्वसमय और परसमय के व्याख्यान करने में जो रत (लीन) रहते हैं अर्थात् ध्यान, अध्ययन और अध्यापन ही जिनका कार्य है वे उपाध्याय कहलाते हैं। भगतीव रूपी कमल र को विकसित करने के लिए जो सूर्य के समान हैं, जिनके समीप जाकर भव्यजीव शास्त्रों का अध्ययन करते हैं, तब उन उपाध्याय रूपी सूर्य के वचन रूपी किरणों से भव्य जीवों के हृदय रूपी कमल विकसित हो जाते हैं, उनका अज्ञान अंधकार विलीन हो जाता है, अत: उपाध्याय को सूर्य की उपमा दी है। उपाध्याय परमेष्ठी ११ अंग और १४ पूर्व के पाठी होते हैं अर्थात् उपाध्याय परमेष्ठी के ये २५ गुण होते हैं। ११ अंग और १४ पूर्व के स्वरूप का कथन ज्ञानाराधना में संक्षेप से किया गया है। धवला की प्रथम पुस्तक में लिखा है कि चौदह विद्यास्थानों के व्याख्यान करने वाले, तत्कालीन परमागम के ज्ञाता व्याख्याता, स्वयं मोक्षमार्ग में स्थित तथा मोक्षमार्ग के इच्छुक शीलधर मुनियों को अध्ययन कराने वाले और शिष्यों के अनुग्रह एवं निग्रह को छोड़कर आचार्य के सारे गुणों का पालन करने वाले उपाध्याय होते हैं। शंका समाधान करने वाला, सुवक्ता, वाग्ब्रह्म, सर्वज्ञ अर्थात् सिद्धान्तशास्त्र और यावत् आगमों का पारगामी, वार्तिक तथा सूत्रों को शब्द और अर्थ के द्वारा सिद्ध करने वाला होने से कवि, अर्थ में मधुरता का द्योतक तथा वक्तृत्व के मार्ग का अग्रणी होता है। उपाध्यायपने में शास्त्र का विशेष अभ्यास ही कारण है, क्योंकि जो स्वयं अध्ययन करता है और शिष्यों को भी अध्ययन कराता है, वहीं गुरु उपाध्याय है। उपाध्याय में व्रतादिक के पालन करने की शेष विधि सर्व मुनियों के समान है। ये उपाध्याय परमेष्ठी संसारी प्राणियों को संसार के दुःखों से निकलने का उपाय बताते हैं, सन्मार्ग में लगाते हैं, स्वपर का कल्याण करते हैं और जनजन के द्वारा आराध्य होते हैं। साधु परमेष्ठी का लक्षण मूलोत्तराभिधानैरखिलगुणैः शासनप्रकाशकराः। काले द्वितीयकेऽपि प्रवर्तमानाः प्रवरशीलाः ।।२२०॥ सिंह गज वृषभ मृग पशु मारुत सूर्याब्धि मन्दरेन्दुमणि-। क्षित्युरगाम्बरसदृशाः परमपदान्वेषिणो यतयः ॥२२१॥

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