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आराधनासमुच्चयम्
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(३) व्यवहारवान् (प्रायश्चित्त शास्त्र का ज्ञाता) ग्यारहवें अंग में वर्णित प्रायश्चित्त विधान को आगम कहते हैं। चौदह पूर्वो में वर्णित ज्ञान को श्रुत कहते हैं। अन्य देश में स्थित एक आचार्य अन्य देश में स्थित दूसरे आचार्य के समीप दोषों को प्रकट करने के लिए अपने शिष्य को भेजता है, उसको आज्ञा कहते हैं।
विहार करने की शक्ति से क्षीण साधु अकेले रहते हैं। जब आचार्यों का समागम होता है, तब स्वकीय व्रतों में लगे हुए दोषों का पूर्व धारणा के अनुसार प्रायश्चित्त लेते हैं, उसे धारणा कहते हैं।
पूर्व आचार्यों के अनुसार जो आधुनिक आचार्यों के द्वारा प्रणीत प्रायश्चित्त है, वह जीत कहलाता है। इन आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत रूप पाँच प्रकार के व्यवहार वा प्रायश्चित्त के ज्ञाता को व्यवहारवान् वा प्रायश्चित्तज्ञ कहते हैं।
(४) आसनादिद - वसतिका में प्रवेश करने में (अर्थात् कोई साधु वसतिका में आया है। वसतिका से निकलने में (अर्थात् कोई साधु वसांतका से जा रहा है उसके) वसतिका, आसन और उपकरण के शोधन में सहायता करना । रोगी साधु की वैय्यावृत्ति में करवट बदलाना, बैठाना, उठाना, शय्या बिछाना, मल-मूत्रादि स्वच्छ करना, भोजनपान की विधि मिलाकर शारीरिक सहायता करना, आदि क्रियाओं के द्वारा साधुगणों की सेवा करने वाले को प्रकारक या आसनादिद कहते हैं।
(५) आयापायकथी - साधुजनों के लिए आय और अपाय (हेयोपादेय) का कथन करना अर्थात् हे साधुजन ! यदि मायाचार से अपने दोषों को प्रगट करोगे तो तुमको भव-भव में दुःख भोगना पड़ेगा, प्रायश्चित्त लेकर भी आत्मशुद्धि नहीं कर सकोगे, यदि तुम सरल चित्त से अपने दोषों को प्रगट करोगे तो प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध हो जाओगे, तुम्हारी साधना सफल होगी, परभव में सुखी और परम्परा से मुक्तिपद प्राप्त करोगे । इस प्रकार तपस्वीजनों को हानि, लाभ का उपदेश करने वाले आचार्य को आयापायदर्शी या आयापायकथी कहते हैं।
(६) दोषाभाषक या उत्पीड़क - जो आचार्य अपनी बुद्धि की कुशलता से स्वकीय दोषों को गुह्य रखने वाले कुटिल साधुओं के दोषों को भी उनसे प्रकट करवा लेते हैं, उनके अन्त:करण में स्थित रहस्य (वा गुप्त दोषों) को भेदने वाले, उनके दोषों को अपनी युक्ति से निकलवाकर साधु को निर्दोष करने वाले आचार्य को दोषाभाषक या उत्पीड़क कहते हैं।
अथवा, जो आचार्य उत्कृष्ट आत्मबली, शारीरिक तेज से विभूषित, प्रशस्त वचन बोलने वाले तथा जिनकी कीर्ति संसार में प्रसिद्ध है, सिंह के समान पराक्रम के धारक होते हैं, वे उत्पीलक या उत्पीड़क कहलाते हैं।
(७) अपरिस्रावी - गुरु का विश्वास करके, शिष्य ने स्वकीय निन्दनीय अपकीर्तिकारक दोषों