Book Title: Aradhanasamucchayam
Author(s): Ravichandramuni, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 284
________________ आराधनासमुच्चयम् २७५ क्षायिक लाभ होता है, जिससे उनके शरीर को बल प्रदान करने में कारणभूत दूसरे मनुष्यों को असाधारण अर्थात् कभी न प्राप्त होने वाले परम शुभ और सूक्ष्म ऐसे अनन्त परमाणु प्रति समय सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं, जिससे कवलाहार के बिना केवल भगवान वर्ष एक कोटि पूर्व रह सकते हैं । भोगान्तराय कर्म के समस्त क्षय हो जाने से अतिशय वाले क्षायिक अनन्त भोगों का प्रादुर्भाव होता है, जिससे कुसुमवृष्टि आदि अतिशय विशेष होते हैं। समस्त उपभोगान्तराय के नष्ट हो जाने से अनन्त क्षायिक उपभोग प्राप्त होता है, जिससे सिंहासन, चामर और तीन छत्रादि विभूतियाँ होती हैं। र्यान्तराय कर्म के क्षय से क्षायिक अनन्तवीर्य प्रगट होता है। पूर्वोक्त सात प्रकृतियों के अत्यन्त विनाश से क्षायिक सम्यग्दर्शन होता है । चारित्र मोहनीय के विनाश से क्षायिक चारित्र होता है। चार घातिया कर्मों के नाश से ये नौ क्षायिक भाव उत्पन्न होते हैं। इन्हीं को नौ लब्धि कहते हैं। इन नौ लब्धियों के कारण ही यह आत्मा परमात्मा पद को प्राप्त होता है। वीतराग अर्हन्त देव दिव्यध्वनि के द्वारा सम्पूर्ण तत्त्वों के स्वरूप का निरूपण करते हैं। तीन लोक के स्वामी अर्थात् सौ इन्द्रों के द्वारा स्तुति करने योग्य निजयश से उत्पन्न विहार करने का स्थान है अर्थात् जिनेन्द्र भगवान के महान् पुण्य तीर्थंकर नाम प्रकृति के उदय से समवसरण की रचना होती है अथवा जब भगवान विहार करते हैं, तब इन्द्र दिव्य पुष्पयान बनाता है, जिसकी रचना कुबेर करता है । चतुष्टय अरिहंत देहादि सुवैभव से युक्त होते हैं अर्थात् चौंतीस अतिशय आठ प्रातिहार्य और चार अनन्त युक्त होते हैं। से चौंतीस अतिशयों के नाम (१) जन्म के दस अतिशय : १. अनुपम सौन्दर्य, २ चम्पक के पुष्प के समान सौरभ से युक्त शरीर, ३. स्वेद ( पसीना ) रहित, ४. मलमूत्र का नहीं होना अर्थात् निर्मल शरीर का होना (इसमें मलमूत्र रहित यह उपलक्षण मात्र है ।) इस निर्मल शब्द के प्रयोग से कफ, नाकमल, कर्णमल आदि किसी प्रकार का मल उनके शरीर में नहीं होता है । ५. दूध के समान श्वेत वर्ण का रक्त होता है। ६. शरीर बहुत बलशाली है, अतः शरीर में अतुल बल होता है । ७. हितमित प्रिय और मधुर वचन बोलते हैं। ८. वज्र वृषभ नाराच संहनन के धारी होते हैं। ९. उनका समचतुरस्र संस्थान होता है और १०. एक हजार आठ लक्षण होते हैं। एक हजार आठ में से एक सौ आठ लक्षण व नौ सौ व्यंजन होते हैं। श्रीवृक्ष, शंख, कमल, स्वस्तिक, अंकुश, तोरण, चमर, श्वेतछत्र, सिंहासन, पताका, दो मीन, दो कुंभ, कच्छप, चक्र, समुद्र, सरोवर, विमान, भवन, हाथी, मनुष्य, स्त्रियाँ, सिंह, बाण, धनुष, मेरु, "

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