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अनन्त चतुष्टय :
१. अनन्त दर्शन, २. अनन्त ज्ञान, ३. अनन्त सुख और ४. अनन्त वीर्य । भगवान के ४६ गुण ये हैं : ४ अनन्त चतुष्टय ३४ अतिशय और ८ प्रातिहार्य । १८ दोषों के अभाव का निर्देश :
छुहत भीरुरोसो रागो मोहो चिंता जरारुजामिच्छु । स्वेदं खेदं मदो र विम्हियाणिद्दाजणुव्वेगो ॥
आराधनासमुच्चयम् २७८
१. क्षुधा, २. तृषा, ३. भय, ४. रोष (क्रोध), ५. राग, ६. मोह, ७. चिन्ता, ८. जरा, ९. रोग, १०. मृत्यु, ११. स्वेद, १२. खेद, १३, मद, १४. रति, १५. विस्मय, १६. निद्रा, १७. जन्म, १८. उद्वेग ( अरति) ये अठारह दोष हैं।
इन शरीर वैभवादि ४६ गुण सहित और क्षुधादि १८ दोष रहित सकल (शरीर सहित ) परमात्मा अरहन्त कहलाते हैं।
सिद्धों का स्वरूप
निर्गलितसिक्थमूषाभ्यन्तररूपोपमस्वकाकृतयः । स्वल्पोनचरमदेहसमाना ध्रुवनिष्कलात्मानः ॥ २१४॥ अष्टविधकर्मरहिता: स्वस्थीभूता निरञ्जना नित्याः ।
स्वष्टगुणाः कृतकृत्या लोकाग्रनिवासिनः सिद्धाः ॥ २१५ ॥ युग्मम् ॥
अन्वयार्थ - निर्गलितसिक्थ- मूषाभ्यन्तर रूपोपम स्वकाकृतयः - निर्गलितसिक्थ मूषा के
अभ्यन्तर रूप के समान स्वकीय आकृति वाले । स्वल्पोनचरमदेहसमाना कुछ कम चरम देह के समान । ध्रुव निष्कलात्मा । अष्टविधकर्मरहिताः
ध्रुवनिष्कलात्मानः आठ प्रकार के कर्म से रहित ! स्वस्थीभूताः स्वस्थीभूत। निरंजना: - कर्म अंजन से रहित । स्वष्ट गुणाः स्वकीय आठ गुणों युक्त । कृतकृत्या : - कृतकृत्य । नित्या: नित्य । लोकाग्रनिवासिनः
लोकाकाश के अग्र भाग पर
स्थित | सिद्धा: - सिद्ध होते हैं।
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लोहे आदि का जो साँचा बना रहता है उसको मूषा कहते हैं। सिक्थ ओदन को कहते हैं । अर्थात् अग्नि पर पकाने पर चावल होते हैं, उनको सिक्थ कहते हैं। साँचे के भीतर मोम या ओदन निकालने के बाद जो आकार रह जाता है, उसी प्रकार अन्तिम शरीर से कुछ न्यून पुरुषाकार सिद्ध भगवान की आकृति होती है।
जिन्होंने नाना भेदरूप आठ कर्मों का नाश कर दिया है, जो तीन लोक के मस्तक के शेखर स्वरूप