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आराधमासमुच्चयम् -२६०
की है। एकदेश उदीरणोत्थ निर्जरा में भी बिना तपश्चरण के भी किसी कारणवश कर्म उदय में आकर नष्ट हो जाते हैं; जैसे भयानक पदार्थों के देखने, श्वासोच्छ्वास के रोकने, रक्त बहने आदि कारणों से आयु कर्म का नाश हो जाता है, वह एकदेश उदीरणोत्थ निर्जरा है और भी अनेक ऐसी परिस्थतियाँ हैं जिनमें कर्म बिना काल में ही उदय में आकर नष्ट हो जाते हैं।
____ अथवा - चतुर्थ गुणस्थान, पंचःगुणस्थान में होने वाली, इत्यादि अनेक प्रकार की निर्जरा एकदेशोत्थउदीरणा निर्जरा होती है।
महान् तप के द्वारा दुष्कर्मों का झड़ना, गलना, पचना होता है, उसको सकल निर्जरा कहते हैं। अर्थात् जब महान् तप के द्वारा सारे घातिया कर्म नष्ट होकर आत्मा सकल परमात्मा बन जाती है, वह सकल निर्जरा कहलाती है।
कालोपायाभ्यां फलपाकः संदृश्यते यथागेषु । कालोपायाभ्यां फलपाकः कर्मसु तथा भवति ॥१८५।।
। इति निर्जरानुप्रेक्षा। अन्वयार्थ - यथा - जिस प्रकार । अगेषु - पापकर्मों में। कालोपायाभ्यां - काल और उपाय के द्वारा । फलपाक: - फल का पाक। संदृश्यते - देखा जाता है। तथा - उसी प्रकार । कर्मसु - सर्वकर्मों में। कालोपायाभ्यां - काल और उपायों के द्वारा। फलपाकः - कर्म का विपाक | भवति - होता है।।८४॥
अर्थ - जिस प्रकार घातिया कर्मादि पापकर्म काल (स्थिति पूर्ण होने पर) और उपाय, तपश्चरणादि के द्वारा उदय तथा उदीरणा के द्वारा स्वकीय सुख, दुःख आदि फलों को देकर झड़ते हैं, गलते हैं, पचते हैं, नष्ट होते हैं; उसी प्रकार आठों ही कर्म कालस्थिति पूर्ण होने पर उदय में आकर महान् तपश्चरणादि के द्वारा उदीरणा को प्राप्त होकर अपने सुख दुःख आदि फलों को देकर झड़ते हैं, गलते हैं, नष्ट होते हैं; यह निर्जरा कहलाती है। इस प्रकार कर्मों का उदय, उदीरणा, उससे होने वाले फल का चिंतन करना निर्जरा भावना है।
___धर्मानुप्रेक्षा अभ्युदयजनिः श्रेयससंभवसौख्येषु यः सदा सत्त्वम् ।
धारयति सोऽत्र धर्मोऽहिंसादिकलक्षणोपेतः॥१८६॥ अन्वयार्थ - यः - जो। सदा - निरंतर । सत्त्वं - जीवों को। अभ्युदयजनिःश्रेयससंभवसौख्येष - सांसारिक भोगों के साथ मोक्षसुख में। धारयति - धारण करता है। सः - वह। अत्र - यहाँ पर। अहिंसादिकलक्षणोपेतः - अहिंसादि लक्षणों से युक्त । धर्मः - धर्म है।