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आराधनासमुच्चयम् २६८
अर्थ - पूर्वश्रुतवेदी मानव के द्वारा व्यक्त है अर्थात् जिस ध्यान का ध्याता पूर्वविद् ही होता है, ऐसे मानव किसी एक वस्तु का आश्रय लेकर ध्यान के द्वारा अर्थ, व्यंजन और योग के संक्रमण रूप संक्रान्ति से रहित ध्यान किया करते हैं, उस ध्यान को एकत्व वितर्कावीचार नामक दूसरा शुक्ल ध्यान कहते हैं।
इस ध्यान में अर्थ - व्यंजन तथा योग रूप किसी एक पदार्थ का आश्रय होता है, अतः एकत्व है। श्रुतज्ञान के आश्रय से होता है, अतः वितर्क है तथा अर्थ, व्यंजन और योग की संक्रान्ति नहीं होने से अवीचार है। अतः इस ध्यान को एकत्व वितर्क अवीचार कहते हैं ।
सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान का लक्षण
कैवल्यबोधनोऽर्थान् सर्वांश्च सपर्ययांस्तृतीयेन । शुक्लेन ध्यायति वै सूक्ष्मीकृतकाययोगः सन् ॥ २०२॥
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अन्वयार्थ - वै - निश्चय से सूक्ष्मीकृतकाययोगः सन् सूक्ष्म किया है काययोग को जिसने ऐसा । कैवल्यबोधन: - केवलज्ञानी । सर्वपर्यायान् - सर्वपर्यायसहित । अर्थान् - सर्व पदार्थों को । तृतीयेन तीसरे । शुक्लेन शुक्ल ध्यान के द्वारा। ध्यायति
ध्याता है।
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अर्थ - तृतीय सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक शुक्ल ध्यान १३ वें गुणस्थान का अन्तर्मुहुर्त काल शेष रहने पर होता है, उस समय उनके काययोग सूक्ष्म हो जाता है। वे १३वें गुणस्थानवर्ती केवलज्ञानी सर्वपर्याय सहित सारे पदार्थ एक साथ जानते हैं, देखते हैं और सूक्ष्म क्रिया से युक्त होते हैं, तब सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाति नामक शुक्ल ध्यान होता है।
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चतुर्थ शुक्ल ध्यान का कथन
शीलेशितामुपेतो युगपद्विश्वार्थसंकुलं सद्यः । ध्यायत्यपेतयोगो येन तु शुक्लं चतुर्थं तत् ॥ २०३॥
अन्वयार्थ येन जिससे । शीलेशितां शैलेशभाव को । उपेतः युक्त। अपेतयोगः योगरहित । सद्यः - शीघ्र ही । युगपत् - एक साथ । विश्वार्थसंकुलं - सर्व पदार्थों से व्याप्त वस्तु का। ध्यायति - ध्यान करते हैं। तु - पादपूर्ति हेतु है । तत् - वह । चतुर्थं चौथा । शुक्लं - शुक्ल ध्यान है।
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अर्थ योगों का निरोध हो जाने से जो पर्वत के समान निश्चल हो गये हैं, अर्थात् जिनके आत्मप्रदेश निश्चल अकंप है अथवा जो १८ हजार शीलों के स्वामी हैं, जो अपने केवलज्ञान के द्वारा सर्व पर्याय सहित सर्व पदार्थों को एक साथ जानते हैं, देखते है। चौदहवें गुणस्थानवर्त्ती अयोगकेवली जिस ध्यान को ध्याते हैं, वह समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्ल ध्यान है ।
चार प्रकार के ध्यान में होने वाले गुणस्थानों का कथन
आद्येष्वार्तध्यानं षट्स्वपि रौद्रं च पञ्चसु गुणेषु । धर्ममसंयतसम्यग्दृष्ट्यादिषु भवति हि चतुर्षु ॥ २०४॥