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आराधनासमुच्चयम् २७०
प्रकार आचार्यों का मतभेद होने से आचार्यदेव ने 'उक्तं' कहकर आचार्यों के कथन के मतभेद को सूचित किया है। इस ग्रन्थ में भी आचार्यदेव ने, शुक्ल ध्यान १२वें गुणस्थान से होता है, ऐसा माना है।
शुक्न ध्यान में गुणस्थान शान्तकषाये प्रथमं क्षीणकषाये द्वितीयशुक्लं तु ।
भवति तृतीयं योगिनि केवलिनि चतुर्थमपयोगे॥२०५।। अन्वयार्थ - शान्तकषाये - उपशान्त नामक ग्यारहवें गुणस्थान में। प्रथमं - पृथक्त्व वितर्क शुक्ल ध्यान । क्षीणकषाये - क्षीणकषाय नामक १२वें गुणस्थान में। द्वितीय शुक्लं - दूसरा शुक्न ध्यान होता है। योगिनि - सयोग। केवलिनि - केवली के । तृतीय - तीसरा शुक्लध्यान होता है। तु - और। अपयोगे - अयोगकेवली के। चतुर्थ - चौथा शुक्लध्यान। भवति - होता है।
अर्थ - उपशान्तकषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थान में पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक शुक्ल ध्यान होता है। क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान में एकत्व-वितर्क-अवीचार नामक दूसरा शुक्ल ध्यान होता है। सयोगकेवली नामक तेरहवें गुण-स्थान में सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्ल ध्यान और समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्ल ध्यान होता है।
आचारों के कान आर्तध्यानविकल्पा: नयन्ति तिर्यग्गतिस्तु देहभृतः । रौद्रध्यानविभेदा नरकगतीस्तीव्रपापरतान् ॥२०६।। धर्मध्यानविशेषाद् देवगति प्रापयन्त्यनेकविधाम् ।
शुक्लध्यानोत्कर्षाः सिद्धगतिं शाश्वतात्मसुखाम् ॥२०७।। अन्वयार्थ - आर्तध्यानविकल्पाः - आर्त्तध्यान के विकल्प । देहभृतः - प्राणियों को। तिर्यग्गतिः - तिर्यंच गति में। नयन्ति - ले जाते हैं। तु - और। रौद्रध्यानविभेदाः - रौद्रध्यान के भेद। तीव्रपापरतान् - तीव्रपाप में रत । देहभृतः - प्राणियों को। नरकगतिः - नरक गति में। नयन्ति - ले जाते हैं।
धर्मध्यानविशेषात् - धर्मध्यान के विशेष से यह प्राणी। अनेकविधां - अनेक प्रकार की। देवगतिं - देवगति को प्रापयन्ति - प्राप्त होते हैं। शुक्लध्यानोत्कर्षः - शुक्ल ध्यान के उत्कर्ष परिणाम। प्राणियों को। शाश्वतात्मसुखां - शाश्वत आत्मसुख रूप। सिद्धगतिं - सिद्धगति को। प्रापयन्ति - प्राप्त कराते हैं।
जो प्राणी निरंतर आर्तध्यान में लीन रहते हैं वे मरकर तिर्यंच गति में उत्पन्न होते हैं अर्थात् आर्तध्यान तिर्यंच गति का कारण है। रौद्र ध्यान तीव्रपाप में रत प्राणियों को नरक गति में पहुँचाता है अर्थात् रौद्र ध्यान नरक गति का कारण है।