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आराधनासमुच्चयम्-२६५
- काल के व्यतीत होने पर। अपि - भी। सुलभा - सुलभ । नो - नहीं है। इव - जैसे। अन्धकारे - अन्धकार में। सलिलनिधी - समुद्र में। पतितं - गिरा हुआ। अनयँ - अमूल्य । रत्नं - रत्न प्राप्त नहीं होता॥१६॥
जिस प्रकार अन्धकार में प्रमाद से समुद्र में गिरे हुए अमूल्य रत्न का पुन: प्राप्त होना बहुत कठिन है; उसी प्रकार यदि रत्नत्रय रूपी बोधि हाथ से निकल गई तो पुनः बहुत काल बीतने पर भी प्राप्त होना कठिन है। इस प्रकार बोधि की दुर्लभता का चिंतन करना बोधिदुर्लभ भावना है। इन १२ भावनाओं का चिंतन संस्थानविचय नामक धर्म ध्यान है।
बारह भावनाओं का कथन पूर्ण हुआ।
शुक्रन ध्यान का कथन आकाशस्फटिकमणिज्योतिर्वा निश्चलं कषायाणाम् ।
प्रशमक्षयजं शुक्लध्यानं कर्माटवीदहनम् ।।१९८॥ अन्वयार्थ - कषायाणां - कषायों के। प्रशमक्षयजं - प्रशम अथवा क्षय से उत्पन्न होने वाला। कर्माटवीदहनं - कर्म रूपी वन को दग्ध करने में समर्थ। आकाशस्फटिकमणिज्योति: - आकाश वा स्फटिक मणि की ज्योति के समान। निश्चलं - निश्चल । शुक्लध्यानं - शुक्ल ध्यान होता है।
शुक्ल ध्यान कषायों के उपशम या क्षय से उत्पन्न होता है। इस ग्रन्थ के कर्ता का मत है कि कषायों के उदय में शुक्न ध्यान नहीं होता ।
जो मल (कषाय) रहित जीव के परिणामों से उत्पन्न होता है तथा जिसमें शुचिगुण का सम्बन्ध है, वह शुक्ल ध्वान कहलाता है। जैसे मैल हट जाने से वस्त्र शुचि होकर शुक्ल होता है, वैसे ही कषाय मल के हट जाने से शुक्ल ध्यान शुचि एवं निर्मल होता है।
यह शुक्ल ध्यान, आकाश अथवा स्फटिक मणि की ज्योति के समान निर्मल एवं निष्कम्प होता है। कषायरूपी रज के क्षय से वा उपशम से उत्पन्न होता है और यहाँ लेश्या भी शुक्ल होती है। ध्यान, ध्याता, ध्येय और ध्यान के विकल्प से रहित, अन्तमुर्खाकार समस्त इन्द्रिय समूह के अगोचर निरंजन निज परमात्म तत्त्व में अविचल स्थिति तथा समस्त रागादि विकल्प से रहित आत्मसंवेदन होता है, वह शुक्ल ध्यान है।
शुक्न ध्यान के भेद प्रभेद का कथन स पृथक्त्ववितकर्यान्वितवीचारप्रभृतिभेदभिन्नं तत् ।
ध्यानं चातुर्विध्यं प्राप्नोतीत्याहुराचार्याः॥१९९॥ अन्वयार्थ - पृथक्त्ववितर्कान्वितधीचार प्रभृति भेद भिन्नं - पृथक्त्व वितर्क वीचारादि भेदों से भिन्न । तत् - वह। ध्यानं - शुक्ल ध्यान । चातुर्विध्यं - चार प्रकार को। प्राप्नोति - प्राप्त होता है।