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आराधनासमुच्चयम् - २१८
और मिश्रकाल | अगृहीत पुद्गल को ग्रहण करने के समय को अगृहीत ग्रहण काल, गृहीत के ग्रहण करने के समय को गृहीत ग्रहण काल और मिश्रवर्गणा के ग्रहणकाल को मिश्र ग्रहणकाल कहते हैं। जैसे किसी एक जीव ने तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों को एक समय में ग्रहण किया। अनन्तर वे पुद्गल स्निग्ध या रूक्ष स्पर्श तथा वर्ण और गन्ध आदि के द्वारा जिस तीव्र, मन्द और मध्यम भाव से ग्रहण किये थे उसी रूप से अवस्थित रहकर द्वितीयादि समयों में निर्जीर्ण हो गये। तत्पश्चात् अगृहीत परमाणुओं को अनन्त बार ग्रहण करके छोड़ा, मिश्र परमाणुओं को अनन्त बार ग्रहण करके छोड़ा और बीच में गृहीत परमाणुओं को अनन्त बार ग्रहण करके छोड़ा तत्पश्चात् जब उसी जीव के सर्वप्रथम ग्रहण किये गये वे ही परमाणु उसी प्रकार से नोकर्म भाव को प्राप्त होते हैं, तब यह सब मिलकर एक नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन है।
एक जीव ने आठ प्रकार के क्रम रूप से जिन पुद्गलों को ग्रहण किया है वे समयाधिक एक आवली के बाद द्वितीयादि समयों में (निर्जीर्ण होकर) झर गये। पश्चात् जो क्रम नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन में बतलाया है उसी क्रम से वे पुद्गल भी उसी प्रकार से उस जीव के जब कर्मभाव को प्राप्त होते हैं तब यह सब मिलकर एक कर्मद्रव्यपरिवर्तन होता है। इस जीव ने सभी पुद्गलों को क्रम से भोगकर छोड़ा है और इस प्रकार यह जीव अनन्तबार पुद्गल परिवर्तनरूप संसार में घूमता रहता है।
क्षेत्र परिवर्तन संसार भी स्वक्षेत्र और परक्षेत्र के भेद से दो प्रकार का है :
स्वक्षेत्र परिवर्तन का स्वरूप इस प्रकार है - कोई जीव सूक्ष्मनिगोदिया की जघन्य अवगाहना से उत्पन्न हुआ और अपनी आयु प्रमाण जीवित रहकर मर गया। फिर वही जीव एक प्रदेश अधिक अवगाहना लेकर उत्पन्न हुआ। इस प्रकार एक-एक प्रदेश अधिक की अवगाहनाओं को क्रम से धारण करते-करते महामत्स्य की उत्कृष्ट अवगाहना पर्यन्त संख्यात धनांगुल प्रमाण अवगाहनाओं के विकल्पों को वही जीव जितने समय में धारण करता है, उतने काल के समुदाय को स्वक्षेत्र परिवर्तन कहते हैं।
___ परक्षेत्रपरिवर्तन रूप संसार में अनेक बार भ्रमण करता हुआ यह जीव तीनों लोकों में सम्पूर्ण क्षेत्र में ऐसा कोई भी स्थान नहीं है, जहाँ पर अपनी अवगाहना वा परिणाम को लेकर उत्पन्न न हुआ हो। अर्थात् जिसका शरीर आकाश के सबसे कम प्रदेशों पर स्थित है ऐसा एक सूक्ष्म निगोद लब्ध पर्याप्तकजीव लोक के आठ मध्य प्रदेशों को अपने शरीर के मध्य में करके उत्पन्न हुआ और क्षुद्र भव ग्रहण काल तक जीवित रहकर मर गया। इसके पश्चात् वही जीव पुन: उसी अवगाहना से वहाँ दूसरी बार उत्पन्न हुआ, तीसरी बार उत्पन्न हुआ, चौथी बार उत्पन्न हुआ, इस प्रकार अंगुल के असंख्यातवें भाग में आकाश का एक-एक प्रदेश बढ़ाकर सम्पूर्ण लोक को अपना जन्मक्षेत्र बनाया। इस प्रकार वह सब मिलकर एक क्षेत्रपरिवर्तन होता है। अर्थात् क्रमशः तीन सौ तैंतालीस राजू प्रमाण क्षेत्र को स्वकीय जन्म-मरण का स्थान बनाता है।
काल परिवर्तन रूप संसार में भ्रमण करता हुआ उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल के सम्पूर्ण समयों और आवलियों में अनेक बार जन्म धारण करता है और मरता है। जैसे - कोई जीव उत्सर्पिणी के प्रथम समय में उत्पन्न हुआ और आयु के समाप्त हो जाने पर मर गया। पुन: वही जीव दूसरी उत्सर्पिणी के दूसरे समय