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आराधनासमुच्चयम् - २२८
लेते हैं और वहाँ की अतिउष्ण, शीत, कर्कश, रूक्ष, अशुचि, अतिविरस और दुर्गन्धयुक्त भूमियों में उग्र दुख भोगते हैं।
नारकियों को चार प्रकार के दु:ख होते हैं- क्षेत्रजनित, असुरकृत, मानसिक और शारीरिक ।
वहाँ की कर्कश, शीत, उष्ण आदि से युक्त भूमि के स्पर्श से जो महान् दुख होता है वह क्षेत्रकृत दुःख है।
बालुकाप्रभा नामक तीसरे नरक तक असुर जाति के देव जाकर नारकियों को क्रोधित कराते हैं। इस क्षेत्र में जिस प्रकार मनुष्य मेढ़े और भैंसे आदि के युद्ध को देखते हैं, उसी प्रकार असुरकुमार जाति के देव नारकियों के युद्ध को देखते हैं और मन में सन्तुष्ट होते हैं। खूब तपाये हुए लोहे का रस पिलाना, अत्यन्त तपाये हुए लौहस्तम्भ का आलिंगन कराना, यन्त्र में पेलना आदि के द्वारा नारकियों को परस्पर दुख उत्पन्न कराते हैं। वे नारकियों को उनके पूर्वभव के बैर का स्मरण कराकर परस्पर लड़ने के लिए प्रेरणा करते रहते हैं। यह असुरकृत दुःख है।
अहो ! अग्नि के स्फुलिंगों के समान यह वायु, तप्त धूलि की वर्षा, विष सरीखा असिपत्रवन, जबरदस्ती आलिंगन कराने वाली ये लोहे की गरम पुतलियाँ हमको परस्पर लड़ाने वाले ये दुष्ट यमराज तुल्य असुरदेव हमारा भक्षण करने के लिए सामने से आ रहे हैं। भयंकर पशु सदृश तीक्ष्ण शस्त्रों से युक्त ये भयानक नारकी, सन्तापजनक करुण क्रन्दन की आवाज, शृगालों की हृदयविदारक ध्वनियाँ, असिपत्रवन में गिरने वाले पत्तों का कठोर शब्द, काँटों वाले सेमर वृक्ष, भयानक वैतरणी नदी, अग्नि की ज्वालाओं से युक्त ये बिल, कितने दुःसह व भयंकर हैं ! प्राण भी आयु पूर्ण हुए बिना छूटते नहीं। अरे-अरे ! अब हम कहाँ जावें ? इन दुखों से हम कब तिरेंगे ? इस प्रकार मानसिक सन्ताप उत्पन्न होता है तथा हर समय उन्हें मरने का संशय बना रहता है। यह मानसिक दुःख है।
हाय-हाय ! पापकर्म के उदय से हम इस भयानक नरक में पड़े हैं। ऐसा विचारते हुए वज्राग्नि के समान सन्तापकारी पश्चाताप करते हैं। हाय-हाय ! मैंने सत्पुरुषों व वीतरागी साधुओं के कल्याणकारी उपदेशों का तिरस्कार किया है। मिथ्यात्व व अविद्या के कारण विषयान्ध होकर मैंने पाँचों पाप किये हैं। पूर्व भवों में मैंने जिनको सताया है, वे यहाँ मुझको मारने के लिए सिंह के समान उद्यत हैं। मनुष्य भव में मैंने हिताहित का ध्यान (विचार) नहीं किया। अब यहाँ क्या कर सकता हूँ ? अब किसकी शरण में जाऊं, यह दुख अब मैं कैसे सहूँगा, जिनके लिए मैंने ये पाप कार्य किये हैं वे कुटुम्बीजन अब क्यों आकर मेरी सहायता नहीं करते हैं ? इस संसार में धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई सहायक नहीं। इस प्रकार निरन्तर अपने पूर्वकृत पापों आदि का सोच करता रहता है।
नारकी जीव पाप से नरक बिलों में उत्पन्न होकर और एक मुहूर्त मात्र में छह पर्याप्तियों को प्राप्त कर आकस्मिक भय से युक्त होता है।