Book Title: Aradhanasamucchayam
Author(s): Ravichandramuni, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 239
________________ आराधनासमुच्चयम् - २३० है, वह सम्यग्दर्शन सातवें नरक में छह अन्तर्मुहूर्त कम तैंतीस सागर तक रह सकता है परन्तु उनके मानसिक एवं शारीरिक ताप कम नहीं होता। अशुभतर लेश्या के कारण उनके परिणामों की विशुद्धि नहीं होती। उनको शारीरिक वेदना भी भयंकर होती है। उनका जन्म ऊपर कथित योनिस्थानों में होता है। परन्तु पर्याप्ति पूर्ण होते ही भय से काँपता हुआ बड़े कष्ट से चलने के लिए तत्पर होकर छत्तीस आयुधों के मध्य में गिरकर वहाँ से उछलता है। प्रथम पृथिवी में सात योजन ६५०० धनुष प्रमाण ऊपर उछलता है। इससे आगे शेष छह पृथिवियों में उछलने का प्रमाण क्रम से उत्तरोत्तर दूना-दूना है। उसको वहाँ उछलता देखकर पहले वाले नारकी उसकी ओर दौड़ते हैं। शस्त्रों, भयंकर पशुओं व वृक्ष नदियों आदि का रूप धरकर उसे मारते हैं व खाते हैं। हजारों यन्त्रों में पेलते हैं। साँकलों से बाँधते हैं व अग्नि में फेंकते हैं। करोत से चीरते हैं व भालों से बींधते हैं। पकते तेल में फेंकते हैं। शीतल जल समझकर यदि वह वैतरणी नदी में प्रवेश करता है तो भी वे उसे छेदते हैं। कछुओं आदि का रूप धरकर उसे भक्षण करते हैं। जब आश्रय ढूँढने के लिए बिलों में प्रवेश करता है तो उसे वहाँ अग्नि ज्वालाओं का सामना करना पड़ता है। नारकी शीतल छाया के भ्रम से असिपत्र वन में जाते हैं। वहाँ उन वृक्षों के तलवार के समान पत्तों से अथवा अन्य शस्त्रास्त्रों से छेदे जाते हैं। गद्ध आदि पक्षी बनकर नारकी उसे चूंट-चूंट कर खाते हैं। अंगोपांग का चूर्ण बनाकर उसमें क्षार जल डालते हैं। फिर खण्ड-खण्ड करके चूल्हों में डालते हैं। तप्त लोहे की पुतलियों से आलिंगन कराते हैं। उसी के मांस को काटकर उसी के मुख में देते हैं। गलाया हुआ लोहा व तांबा उसे पिलाते हैं। पर फिर भी वे मरण को प्राप्त नहीं होते हैं। अनेक प्रकार के शस्त्रों आदि रूप से परिणत होकर वे नारकी एक दूसरे को इस प्रकार दुख देते हैं। नारकियों के भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है। उसके कारण दूर से ही दु:ख के कारणों को जानकर उनको दुःख उत्पन्न हो जाता है और समीप में आने पर एक-दूसरे को देखने पर उनकी क्रोधाग्नि भभक उठती है तथा पूर्वभव का स्मरण होने से उनकी बैर की गाँठ दृढ़तर हो जाती है, जिससे वे कुत्ता और गीदड़ के समान एक-दूसरे का घात करने के लिए प्रवृत्त होते हैं। वे अपनी विक्रिया से अम्रशस्त्र बनाकर उनसे तथा अपने हाथ-पाँव और दाँतों से छेदना, भेदना, छीलना और काटना आदि के द्वारा परस्पर अति तीव्र दुःख को उत्पन्न करते हैं। कुत्ते आदि जीवों की विष्टा से भी अधिक दुर्गन्धित मिट्टी का भोजन करते हैं और वह भी उनको अत्यन्त अल्प मिलती है, जब कि उनकी भूख बहुत अधिक होती है। नरक में नारकी जीवों को भूख ऐसी लगती है कि समस्त पुद्गलों का समूह भी उसको शमन करने में समर्थ नहीं तथा वहाँ पर तृषा बड़वाग्नि के समान इतनी उत्कृष्ट होती है कि समस्त समुद्रों का जल भी पी ले तो संतोष नहीं मिलता है। दुस्सह तथा निष्प्रतिकार जितने भी रोग इस संसार में हैं, वे सबके सब नारकियों के शरीर में रोमरोम में होते हैं।

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