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आराधनासमुच्चयम् -२३५
कोटों के बाहर उसके दोनों कोनों पर एक-एक करके कुल आठ कूट हैं, जिन पर दिक्कुमारी देवियाँ रहती हैं। इसकी ईशान दिशा में बलभद्र नाम का कूट है जो ५०० योजन तो वन के भीतर है और ५०० योजन उसके बाहर आकाश में निकला हुआ है। इस पर बलभद्र देव रहता है। सौमनस वन से ३६००० योजन ऊपर जाकर मेरु के शीर्ष पर चौथा पाण्डुक वन है, जो चूलिका को वेष्टित करके शीर्ष पर स्थित है। इसके दो विभाग हैं- पाण्डुक व उपपाण्डुक । इसकी चारों दिशाओं में लोहित, अंजन, हरिद्र और पाण्डुक नाम के चार भवन हैं जिनमें सोम आदि लोकपाल क्रोड़ा करत हैं। चार विदिशाओं में चार-पार करके १६ पुष्करिणियाँ हैं। वन के मध्य चूलिका की चारों दिशाओं में चार जिनभवन हैं। वन की ईशान आदि दिशाओं में अर्ध चन्द्राकार चार शिलाएँ हैं - पाण्डुक शिला, पाण्डुकम्बलाशिला, रक्तकम्बला शिला और रक्तशिला। राजवार्तिक के अनुसार ये चारों पूर्वादि दिशाओं में स्थित हैं। इन शिलाओं पर क्रम से भरत, अपरविदेह, ऐरावत और पूर्व विदेह के तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है।
पाण्डुक शिला १०० योजन लम्बी ५० योजन चौड़ी है, मध्य में ८ योजन ऊँची है और दोनों ओर क्रमश: हीन होती गई है। इस प्रकार यह अर्धचन्द्राकार है। इसके बहुमध्य देश में तीन पीठयुक्त एक सिंहासन है और सिंहासन के दोनों पार्श्व भागों में तीन पीठयुक्त एक भद्रासन है। भगवान के जन्माभिषेक के अवसर पर सौधर्म व ऐशानेन्द्र दोनों इन्द्र भद्रासनों पर स्थित होते हैं और भगवान् को मध्य सिंहासन पर विराजमान करते हैं।
अन्य पर्वत : भरत, ऐरावत व विदेह इन तीनों को छोड़कर शेष हैमवत आदि चार क्षेत्रों के बहुमध्यभाग में एक-एक नाभिगिरि है। ये चारों पर्वत ऊपर-नीचे समान गोल आकार वाले हैं।
मेरु पर्वत की विदिशाओं में हाथी के दाँत के आकार वाले चार गजदन्त पर्वत हैं। जो एक ओर तो निषध व नील कुलाचलों को और दूसरी तरफ मेरु को स्पर्श करते हैं। वहाँ भी मेरु पर्वत के मध्यप्रदेश में केवल एक-एक प्रदेश उससे संलग्न है। इन पर्वतों के परभाग भद्रशाल क्न की वेदी को स्पर्श करते हैं। क्योंकि वहाँ उनके मध्य का अन्तराल ५३००० योजन बताया गया है तथा सग्गायणी के अनुसार उन वेदियों से ५०० योजन हटकर स्थित है, क्योंकि वहाँ उनके मध्य का अन्तराल ५२००० योजन बताया है। अपनीअपनी मान्यता के अनुसार उन वायव्य आदि दिशाओं में जो-जो भी नाम वाले पर्वत हैं, उन पर क्रम से ७, ९, ७, ९ कूट हैं। ईशान व नैऋत्य दिशा वाले विद्युत्प्रभ व माल्यवान गजदन्तों के मूल में सीता व सीतोदा नदियों के निकलने के लिए एक-एक गुफा होती है। देवकुरु व उत्तरकुरु में सीतोदा व सीता नदी के दोनों तटों पर एकएक यमक पर्वत हैं। ये गोल आकार वाले हैं। इन पर इनके नाम वाले व्यन्तर देव सपरिवार रहते हैं। उनके प्रासादों का सर्वकथन पद्मद्रह के कमलों के समान है। उन्हीं देवकुरु व उत्तरकुरु में स्थित द्रहों के दोनों पार्श्व भागों में कांचन शैल स्थित है। ये पर्वत गोल आकार वाले हैं। इनके ऊपर कांचन नामक व्यन्तर देव रहते हैं। देवकुरु व उत्तरकुरु के भीतर व बाहर भद्रशाल वन में सीतोदा व सीता नदी के दोनों तटों पर आठ दिग्गजेन्द्र पर्वत हैं। ये गोल आकार वाले हैं। इन पर यम व वैश्रवण नामक वाहन देवों के भवन हैं। उनके नाम पर्वतों वाले ही हैं। पूर्व व पश्चिम विदेह में सीता व सीतोदा नदी के दोनों तरफ