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आराधनासभुच्चवम् २४५
नन्दीश्वर द्वीप :
अष्टम द्वीप नंदीश्वर द्वीप है। उसका कुल विस्तार १६३८४०,००० योजन प्रमाण है। इसके बहुमध्य भाग में पूर्व दिशा की ओर काले रंग का एक-एक अंजनगिरि पर्वत है। उस अंजनगिरि के चारों तरफ १००,००० योजन छोड़कर ४ वापियाँ हैं। चारों वापियों का भीतरी अंतराल ६५०४५ योजन है और बाह्य अंतर २२३६६१ योजन है। प्रत्येक वापी की चारों दिशाओं में अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम्र नाम के चार वन हैं। इस प्रकार द्वीप की एक दिशा में १६ और चारों दिशाओं में ६४ वन हैं। इन सब पर अवतंस आदि ६४ देव रहते हैं। प्रत्येक वापी में सफेद रंग का एक-एक दधिमुख पर्वत है। प्रत्येक वापी के बाह्य दोनों कोनों पर लाल रंग के दो रतिकर पर्वत हैं। लोकविनिश्चय की अपेक्षा प्रत्येक द्रह के चारों कोनों पर चार रतिकर हैं। जिनमंदिर केवल बाहर वाले दो रतिकरों पर ही होते हैं, अभ्यंतर रतिकरों पर देव क्रीड़ा करते हैं। इस प्रकार एक दिशा में एक अंजनगिरि, चार दधिमुख, आठ रतिकर ये सब मिलकर १३ पर्वत हैं। इनके ऊपर १३ जिनमंदिर स्थित हैं। इसी प्रकार शेष तीन दिशाओं में भी पर्वत, द्रह, वन व जिनमंदिर जानना । कुल मिलाकर ५२ पर्वत, ५२ मंदिर, १६ वापियाँ और ६४ वन हैं। अष्टाह्रिका पर्व में सौधर्म आदि इन्द्र व देवगण बड़ी भक्ति से इन मंदिरों की पूजा करते हैं। तहाँ पूर्व दिशा में कल्पवासी, दक्षिण में भवनवासी, पश्चिम में व्यंतर और उत्तर में ज्योतिषी देव पूजा करते हैं।
ग्यारहवाँ द्वीप कुंडलवर नाम का है जिसके बहुमध्य भाग में मानुषोत्तरवत् एक कुंडलाकार पर्वत है। तहाँ पूर्वादि प्रत्येक दिशा में चार-चार कूट हैं। उनके अभ्यंतर भाग में अर्थात् मनुष्यलोक की तरफ एकएक सिद्धवर कूट है। इस प्रकार इस पर्वत पर कुल २० कूट हैं। जिनकूटों के अतिरिक्त प्रत्येक पर अपनेअपने कूटों के नाम वाले देव रहते हैं। मतान्तर की अपेक्षा आठों दिशाओं में एक-एक जिनकूट है। लोकविनिश्चय की अपेक्षा इस पर्वत की पूर्वादि दिशाओं में से प्रत्येक में चार-चार कूट हैं। पूर्व व पश्चिम दिशावाले कूटों की अग्रभूमि में द्वीप के अधिपति देवों के दो कूट हैं। इन दोनों कूटों के अभ्यंतर भागों में चारों दिशाओं में एक-एक जिनकूट है। मतांतर की अपेक्षा उनके उत्तर व दक्षिण भागों में एक-एक जिनकूट
तेरहवाँ द्वीप रुचकवर नाम का है। उसमें बीचोंबीच रुचकवर नाम का कुंडलाकार पर्वत है । इस पर्वत पर कुल ४४ कूट हैं। पूर्वादि प्रत्येक दिशा में आठ-आठ कूट हैं जिन पर दिक्कुमारियाँ देवियाँ रहती हैं। जो भगवान के जन्म कल्याणक के अवसर पर माता की सेवा में उपस्थित रहती हैं। पूर्वादि दिशाओं वाली आठ-आठ देवियाँ क्रम से झारी, दर्पण, छत्र व चँवर धारण करती हैं। इन कूटों के अभ्यन्तर भाग में चारों दिशाओं में चार महाकूट हैं तथा इनकी भी अभ्यन्तर दिशाओं में चार अन्य कूट हैं जिन पर दिशाएँ स्वच्छ करने वाली तथा भगवान का जातकर्म करने वाली देवियाँ रहती हैं। इनके अभ्यंतर भाग में चार सिद्धकूट हैं। किन्हीं आचार्यों के अनुसार विदिशाओं में भी चार सिद्धकूट हैं। लोकविनिश्चय के अनुसार पूर्वादि चार दिशाओं में एक-एक करके चार कूट हैं जिन पर दिग्गजेन्द्र रहते हैं। इन चारों के अभ्यंतर भाग