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आराधनासमुच्चयम् २३२
जल है। वारुणिवर, लवणाब्धि, घृतवर और क्षीरवर, ये चार समुद्र प्रत्येकरस तथा कालोद, स्वयंभूरमण ये तीन समुद्र उदकरस हैं।
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पुष्करवर और
क्षेत्र निर्देश जम्बूद्वीप के दक्षिण में प्रथम भरतक्षेत्र है जिसके उत्तर में हिमवान् पर्वत और तीन दिशाओं में लवण सागर है। इसके बीचोंबीच पूर्वापर लम्बायमान एक विजयार्ध पर्वत है। इसके पूर्व में गंगा और पश्चिम में सिन्धु नदी बहती है। ये दोनों नदियाँ हिमवान के मूल भाग में स्थित गंगा व सिन्धु नाम के दो कुण्डों से निकलकर पृथक्-पृथक् पूर्व व पश्चिम की ओर मुड़ जाती हैं और अपने-अपने समुद्र में गिरती हैं। इस प्रकार इन दो नदियों व विजयार्ध से विभक्त इस क्षेत्र के छह खण्ड हो जाते हैं। विजयार्ध के तीन दक्षिण के खण्डों में से मध्य का खण्ड आर्यखण्ड है और शेष पाँच खण्ड म्लेच्छ खण्ड हैं। आर्यखण्ड १२ यो. लम्बी और ९ यो विस्तृत विनीता या अयोध्या नाम की प्रधान नगरी है जो चक्रवर्ती की राजधानी होती है। विजयार्ध के उत्तर वाले तीन खण्डों में मध्यवाले म्लेच्छ खण्ड के बीचोंबीच वृषभगिरि नाम का एक गोल पर्वत है, दिग्विजय कर चुकने पर चक्रवर्ती उस पर अपना नाम अंकित करता है। इसके पश्चात् हिमवान् पर्वत के उत्तर में तथा महा हिमवान् के दक्षिण में दूसरा हैमवत क्षेत्र है। इसके बहु मध्य भाग में एक गोल शब्दवान नाम का नाभिगिरि पर्वत है। इस क्षेत्र के पूर्व में रोहित और पश्चिम में रोहितास्या नदियाँ बहती हैं। ये दोनों ही नदियाँ नाभिगिरि के उत्तर व दक्षिण में उससे २ कोस परे रहकर ही उसकी प्रदक्षिणा देती हुई अपनी-अपनी दिशाओं में मुड़ जाती है और बहती हुई अन्त में अपनी-अपनी दिशा वाले सागर में गिर जाती है। इसके पश्चात् महाहिमवान के उत्तर तथा निषध पर्वत के दक्षिण में तीसरा हरिक्षेत्र है | नील के उत्तर में और रुक्मि पर्वत के दक्षिण में पाँचवाँ रम्यक क्षेत्र है । पुनः रुक्मि के उत्तर व शिखरी पर्वत के दक्षिण में छठा हैरण्यवत क्षेत्र है। वहाँ विदेह क्षेत्र को छोड़कर इन चारों का कथन हैमवत के समान है। केवल नदियों या नाभिगिरि पर्वत के नाम भिन्न हैं। निषध पर्वत के उत्तर तथा नील पर्वत के दक्षिण में विदेह क्षेत्र स्थित है। इस क्षेत्र की दिशाओं का यह विभाग भरत क्षेत्र की अपेक्षा है, सूर्योदय की अपेक्षा नहीं, क्योंकि वहाँ इन दोनों दिशाओं में भी सूर्य का उदय व अस्त दिखाई देता है। इसके बहुमध्यभाग में सुमेरु पर्वत है (यह क्षेत्र दो भागों में विभक्त है - कुरुक्षेत्र व विदेह) मेरु पर्वत के दक्षिण व निषेध के उत्तर में देवकुरु है, मेरु के उत्तर व नील के दक्षिण में उत्तरकुरु है। मेरु के पूर्व व पश्चिम भाग में पूर्व व अपर विदेह है, जिनमें पृथक् पृथक् १६-१६ क्षेत्र हैं जिन्हें ३२ विदेह कहते हैं। इन बत्तीस विदेह क्षेत्रों में तीर्थंकर चक्रवर्ती उत्पन्न होते हैं। जिस प्रकार भरत क्षेत्र में पूर्व - अपर (पूर्व और अपर क्षेत्र के ) विजयार्ध पर्वत एवं गंगा, सिन्धु नदी के द्वारा छह खण्ड होते हैं, उसी प्रकार एक-एक विदेह क्षेत्र की नगरी में षट्खंड हैं। सब के अन्त में शिखरी पर्वत के उत्तर में तीन तरफ से लवण सागर के साथ स्पर्शित सातवाँ ऐरावत क्षेत्र है। इसका सारा कथन भरत क्षेत्र के समान है।
कुलाचल पर्वत
भरत व हैमवत इन दोनों की सीमा पर पूर्व पश्चिम लम्बायमान प्रथम हिमवान पर्वत है। इस पर