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आराधनासमुच्चयम् : २२२
पापिजनः - हिंसादि पाँच पाप करने वाला जन। अत्युष्णशीतकर्कशक्षाशुचिः अतिविरसदुर्गन्धि - भूमिषु - अति तीव्र उष्ण, शीत, कठोर, अशुचि, अतिविरस दुर्गन्धियुक्त भूमि वाले। नरकेषु - नरकों में। उग्रं - उग्रं । दुःखं - दुखों को। प्राप्नोति - प्राप्त करता है।
नरकिण: - नरक में रहने वाले नारकी। अन्योन्यं - एक दूसरे को (परस्पर)। छेदन-भेदनताड़न-बन्धन-विशसन-विलम्बनोत्तपनज्वलनादि कर्म - छेदन, भेदन, ताड़न, बन्धन, विशसन, विलम्बन, उत्तपन, ज्वलनादि कार्य। सततं - निरंतर । प्रकुर्वते - करते हैं।
च - और। जगति - इस जगत् में। पापोदर्कात् - पाप कर्म के उदय से। एकद्वित्रि चतुः पंचेन्द्रिय संज्ञाः - एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, पंचेन्द्रिय संज्ञी, असंज्ञी आदि भेद वाले। तिर्यशः - तिर्यञ्च होकर। अनेकविकल्पं - अनेक विकल्प वाले। दुःखं - दुःख का। अनुभवान्ते - अनुभव करते हैं।
प्राणिगणः - संसारी प्राणी। मनुजेषु - मनुष्य पर्याय में। पापपाकात् - पाप कर्म के उदय से। अनेक प्रकार - अनेक प्रकार के । दुःखं - दुःखों को और । पुण्यवशात् - पुण्य के उदय से। विविधानि -- अनेक प्रकार के । अभ्युदयसुखानि - चक्रवर्ती आदि अभ्युदयजन्य सुखों को। आप्नोति - प्राप्त करते
शुद्धाशुद्धचरित्रैः - शुद्ध और अशुद्ध चारित्र के द्वारा । नानाभेदोच्चनीचनिलयेषु - नाना प्रकार के भेद वाले उच्च नीच निलयों में। देवगण: - देवगण । संभूतः - होकर। सौख्यमनः - सुखमन होकर भी। दुःखं - दुःख का। अनुभवति - अनुभव करता है।
विध्वस्ताघः - नष्ट कर दिया है पाप को जिन्होंने ऐसे। जन: - प्राणी। मर्त्य क्षेत्रसमाने - मनुष्यक्षेत्र के समान। श्वेतच्छनोपमे - श्वेत छत्र की उपमा वाले। जगच्छिखरे - जगत् के शिखर पर (लोक के अग्रभाग पर) स्वोत्थं - आत्मोत्थ। अनन्तं - अनन्त । सौख्यं - सुख को। भजते - भोगते
अर्थ - जिस क्षेत्र (आकाश) में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छहों द्रव्य देखे जाते हैं, पाये जाते हैं उसको लोक कहते हैं। अथवा षट् द्रव्यों के समूह को लोक कहते हैं। जन्म, जरा और मरण से व्याप्त संसार भी लोक कहलाता है। अथवा, जहाँ पर पुण्य - पाप का फल सुख - दुःख देखा जाता है वह लोक है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार लोक का अर्थ आत्मा होता है। आत्मा स्वयं अपने स्वरूप का लोकन करता है अतः आत्मा लोक है।
इस लोक के बहुत से भेद-प्रभेद हैं, परन्तु मुख्यतया तीन भेद हैं - अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक।
यह लोक अनादि अनिधन है तथा पुरुषाकार या डेढ़ मुरज के आकार का है। वा सुप्रतिष्ठक