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आराधनासमुच्चयम् ०२१९
में उत्पन्न हुआ और अपनी आयु के समाप्त होने पर मर गया। पुन: वही जीव तीसरी उत्सर्पिणी के तीसरे समय में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार इसने क्रम से उत्सर्पिणी समाप्त की और इसी प्रकार अवसर्पिणी भी। यह जन्म नैरन्तर्य कहा तथा इसी प्रकार मरण का भी नैरन्तर्य लेना चाहिए। यह सब मिलकर एक काल परिवर्तन
है।
भव परिवर्तन निर्देश - मिथ्यात्वसंयुक्त इस जीव ने नरक की छोटी सी आयु लेकर ऊपर के ग्रेवेयक विमान तक की आयु क्रम से अनेक बार पाकर संसार-भ्रमण किया है।
नरक गति में सबसे जघन्य आयु दस हजार वर्ष की है। एक जीव उस आयु से वहाँ उत्पन्न हुआ पुनः घूम फिरकर पुन: उसी आयु से वहाँ उत्पन्न हुआ और मर गया। पुन: आयु में एक-एक समय बढ़ाकर नरक की तैंतीस सागर आयु पूरी की। इसी प्रकार मनुष्य गति में अन्तर्मुहूर्त आयु के साथ तिर्यंच गति में उत्पन्न हुआ और पूर्वोक्त क्रम से उसने तिर्यंच गति की तीन पल्य आयु समाप्त की। इसी प्रकार मनुष्य गति में अन्तर्मुहूर्त से लेकर तीन पल्य आयु समाप्त की तथा देवगति में नरक गति के समान आयु समाप्त की। किन्तु देवगति में इतनी विशेषता है कि यहाँ ३१ सागर आय समाप्त होने तक कथन करना चाहिए । मोंकि ऊपर नव अनुदिश आदि के देव संसार में भ्रमण नहीं करते। इस प्रकार यह सब मिलकर एक भव परिवर्तन
पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि कोई एक जीव ज्ञानावरण प्रकृति की सबसे जघन्य अपने योग्य अन्त:कोड़ा-कोड़ी प्रमाण स्थिति को प्राप्त होता है, उसके उस स्थिति के योग्य षट्स्थान पतित असंख्यात लोकप्रमाण कषाय अध्यवसाय स्थान होते हैं और सबसे जघन्य कषाय अध्यवसाय स्थानों के निमित्त से असंख्यात लोकप्रमाण अनुभाग अध्यवसाय स्थान होता है। इस प्रकार सबसे जघन्य स्थिति, सबसे जघन्य कषाय अध्यवसाय स्थान और सबसे जघन्य अनुभाग अध्यवसाय स्थानों को धारण करने वाले इस जीव के तद्योग्य सबसे जघन्य योगस्थान होता है। तत्पश्चात् स्थिति कषाय अध्यवसाय स्थान और अनुभाग अध्यवसाय स्थान वही रहते हैं, किन्तु योगस्थान दूसरा हो जाता है जो असंख्यात भाग वृद्धि संयुक्त होता है। इसी प्रकार तीसरे चौथे आदि योगस्थानों में समझना चाहिए। ये सब योग स्थान चार स्थान पतित होते हैं और इनका प्रमाण श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। तदनन्तर उसी स्थिति और उसी कषाय अध्यवसाय स्थान को धारण करने वाले जीव के दूसरा अनुभाग अध्यवसाय स्थान होता है। इसके योगस्थान पूर्व के समान असंख्यात भागवृद्धि संयुक्त होता है। तात्पर्य यह है कि यहाँ पर भी पूर्वोक्त तीन बातें (स्थिति, कषाय और अनुभाग) ध्रुव रहती हैं, परन्तु योगस्थान श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है। इस प्रकार असंख्यात लोकप्रमाण अनुभाग अध्यवसाय स्थान के होने तक तीसरे आदि अनुभाग अध्यवसाय स्थानों में जानना चाहिए। तात्पर्य यह कि यहाँ स्थिति और कषाय अध्यवसाय स्थान तो जघन्य ही रहते हैं किन्तु अनुभाग अध्यवसाय स्थान क्रम से असंख्यात लोकप्रमाण हो जाते हैं और एक-एक अनुभाग अध्यवसाय स्थान के प्रति जगत् श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण योगस्थान होते हैं।