________________
आराधनासमुच्चयम् १८९
वात, पित्त और कफ के विकृत होने से उत्पन्न, शरीर का नाश करने वाले श्वास, कास, जलोदर, भगंदर, कैंसर आदि रोग से पीड़ित होकर जो मानसिक खेद होता है और निरंतर उन रोगों से का चिंतन किया जाता है, वह पीड़ा चिंतन नामक आर्त्त ध्यान है।
छुटकारा
पाने
भोगों की कांक्षा से जिसमें वा जिसके कारण चित्त नियम से दिया जाता है, उसको निदान कहते हैं।' अर्थात् विषयभोग की कांक्षा (बाँछा ) ही निदान है। भविष्य काल में होने वाले भोगों का निरंतर चिन्तन करना, निदान नामक ध्यान है।
भगवती आराधना में निदान तीन प्रकार का कहा है- प्रशस्त, अप्रशस्त और भोगकृत ।
संयमसाधक सामग्री मुझे प्राप्त हो, मेरे दुःखों का नाश हो, मेरा समाधिमरण हो, मुझे रत्नत्रय बोधि की प्राप्ति हो, इत्यादि विचार प्रशस्त निदान है, परन्तु निदान नामक ध्यान नहीं है क्योंकि ये रत्नत्रय के कारण हैं अतः सविकल्प अवस्था में यह चिंतन हेय नहीं है। अन्य सांसारिक भोगों की कांक्षा भोग कृत निदान तथा किसी को मारने, ताड़ने के लिए शारीरिक शक्ति की वांछा अप्रशस्त निदान है और संयमसाधन के लिए उत्तम कुल आदि की प्राप्ति का चिंतन प्रशस्त निदान आदि हेय हैं, संसार के कारण हैं।
जैसे कोई कुष्ठ रोगी कुष्ठ रोग की नाशक रसायन प्राप्त कर उसको अग्नि में क्षेपण करके जला देता है और दुःखी होता है उसी प्रकार भोगों को वांछा करने वाला मानव भोग रोग की नाशक संयम रूपी औषधि को भोगकृत निदान से नष्ट कर देता है । अतः रत्नत्रय की, समाधिमरण की प्राप्ति, बोधि का लाभ आदि की भावना को छोड़कर अन्य का चिंतन नहीं करना चाहिए ।
प्रथम आर्त्त (इष्टवियोगज ) ध्यान इष्ट पदार्थों के वियोग से होता है। दूसरा ( अनिष्टसंयोगज ) ध्यान अनिष्ट पदार्थों के संयोग से होता है। तीसरा ( पीड़ाचिंतन) आर्त ध्यान रोग के प्रकोप की पीड़ा से होता है और चतुर्थ (निदानबंध) ध्यान आगामी काल में भोगों की वाँछा से होता है।
इष्ट के संयोग के लिए, अनिष्ट के वियोग के लिए, रोगों को दूर करने के लिए और भोगों की प्राप्ति के लिए ये चार ध्यान होते हैं।
आर्त्त ध्यान के उत्तर भेद या ध्याता की अपेक्षा इसके भेद असंख्यात लोक प्रमाण हैं क्योंकि इस ध्यान का ध्याता सम्यग्दृष्टि भी है और मिथ्यादृष्टि भी है। शुभ लेश्या वाले मिथ्यादृष्टि (देव-देवी) और अशुभ लेश्या वाले मिध्यादृष्टि भी हैं। शुभ लेश्या वाला सम्यग्दृष्टि और नरक की अपेक्षा अशुभ लेश्या वाला सम्यग्दृष्टि होता है। देशसंयमी व्रती के भी होता है ।
१. भोगाकांक्षया नियतं दीयते चित्तं तस्मिंस्तेनेति वा निदानं । सर्वार्थसिद्धि ।
२. पुरिसत्तादि णिदाणं पि मोक्खकामा मुणि ण इच्छंति ।
पुरिसताइमओ भावो भवमओ य संसारो ।
दुक्खखय कम्मखय समाधिमरणं च बोहिलाहो य ।
एवं पत्थेयव्वं ण पच्छणीयं तओ अण्णं । भगवत्ती आरा. मू. । १२३-१२६ ।