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आराधनासमच्चयम९८८
को उपचार से ध्यान कहा है, वास्तव में वह ध्यान नहीं, ध्यान की चिन्ता या ध्यान की भावना है। आर्तध्यान के लक्षण में "स्मृतिसमन्वाहारः" का प्रयोग है जिसका अर्थ है बार-बार चिंतन करना। आर्त ध्यान दो कारणों से होता है - अंतरंग में कृष्ण, नील और कापोत लेश्या है तथा बाह्य में इष्ट का वियोग, अनिष्ट का संयोग, शारीरिक पीड़ा और सांसारिक भोग हैं। इन दोनों कारणों से आर्त, रौद्र ध्यान के परिणाम होते
यद्यपि आर्त, रौद्र ध्यान देवगति में वा पंचमगुणस्थान वाले देशव्रती के शुभ लेश्या में भी हो सकता है - परन्तु यह गौण है - मुख्यता से अशुभ लेश्या में ही ये दोनों ध्यान होते हैं।
___ आर्त ध्यान का लक्षण और उसके भेद अर्तिर्दुःखं तस्यां ध्यानमार्तनाम भवेत् । स्वेष्टवियोगाधुद्भवभेदेन चतुर्विकल्पं तत् ॥११७ ॥ स्वेष्टवियोगादौ सति हेतौ बाहोऽपनीतये तस्य ।
बुद्धिसमन्वाहारे ह्यार्तध्यानानि चत्वारि ॥११८॥ अन्वयार्थ - अतिः - पीड़ा। दुःखं - दुःख । तस्यां - पीड़ा वा दुःख के होने पर। आर्त्त नाम - आर्त नाम का । ध्यानं - ध्यान । भवेत् - होता है। तत् - वह । स्वेष्टवियोगाद्युद्भवभेदेन - स्वइष्ट वियोगादि के उद्भव से । चतुर्विकल्पं - चार प्रकार का है। स्वेष्टवियोगादौ - अपने इष्ट का वियोगादि । बाहो - बाह्य । हेतौ - हेतु । सति - होने पर। तस्य - उसके। अपनीतये - दूर करने के लिए। बुद्धिसमन्वाहारे - पुन:पुन: चिंतन होने पर। चत्वारि - चार प्रकार का। हि - निश्चय से। आर्तध्यानानि - आर्त ध्यान होते हैं ।। १६-१७॥
अर्थ - आर्त शब्द ऋत् या अर्ति इनमें से किसी एक से बना है। इनमें से ऋतू का अर्थ दुःख है, अर्ति का अर्थ अर्दन है. ऐसी निरुक्ति होकर उसका अर्थ पीड़ा पहुँचाना है। अर्ति में जो ध्यान होता है उसको आर्त ध्यान कहते हैं।
इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, पीड़ाचिंतन और निदानबंध से उत्पन्न होने के कारण यह ध्यान चार प्रकार का है।
इष्ट-प्रिय वस्तु के वियोग होने पर उसको प्राप्त करने के लिए सतत चिंतन करना अर्थात् राज्य, ऐश्वर्य, स्त्री, कुटुम्ब पुत्रादि का वियोग होने पर संत्रास होना, पीड़ा होना, शोक होना, निरंतर चित्त का खेद खिन्न होना, इष्टवियोगज नामक आर्तध्यान है।
अनिष्ट, अप्रिय, अमनोज्ञ शारीरिक एवं मानसिक खेद के कारणभूत विष, कंटक, शत्रु, सर्पादि का संयोग होने पर उनके विनाश के लिए निरंतर चिंता करना, खेद खिन्न रहना, अनिष्ट संयोगज नामक आर्त ध्यान है।
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