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आराधनासभुज्यम् : २०२
एक, वज्रनाराचसंहनन, निर्माण, स्थिर अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुस्वर - दुःस्वर, प्रशस्तविहायोगतिअप्रशस्त विहायोगति, औदारिकशरीर, औदारिक अंगोपांग, तैजसकार्मणशरीर, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास और प्रत्येक शरीर इन ३० प्रकृतियों की उदयव्युच्छित्ति होती है। अयोगकेवली नामक १४वें गुणस्थान के अन्त में साता - असातावेदनीय में से कोई एक, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यशः कीर्ति, तीर्थंकरप्रकृति, उच्चगोत्र इन १२ प्रकृतियों की उदय- व्युच्छित्ति होती है।
मनुष्यायु और
गुणस्थानों में सत्त्व - व्युच्छित्ति - क्रम
जब कर्मों का संवर होता है, तब उनकी निर्जरा और क्षय भी होता है। निर्जरा का दूसरा अर्थ है सत्त्व- व्युच्छित्ति अर्थात् उनका सत्ता में न रहना, आत्मप्रदेशों में से उनका अस्तित्व समाप्त हो जाना । ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि मूल प्रकृतियों और मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण आदि एक सौ अड़तालीस उत्तरप्रकृतियों तथा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध के भेद से सत्त्व - व्युच्छित्ति के भी अनेक भेद हैं। कार्मण वर्गणाओं अथवा कर्मस्कन्धों के संयम व तपादि द्वारा आत्मप्रदेशों में से पृथक् होने, झड़ जाने को सत्त्व- व्युच्छित्ति कहते हैं। जैसे-जैसे जीव के परिणाम विशुद्ध होते हैं और वह गुणस्थानक्रम से ऊपर उठता है, उसी क्रम से कर्मपिण्ड आत्मप्रदेशों को छोड़कर अलग होते जाते हैं। कर्मपिण्ड की आत्यन्तिकी निवृत्ति को क्षय कहते हैं ।
जैसे पानी में नीचे कीचड़ जमा हुआ हो, उसके ऊपर के शुद्ध जल को किसी दूसरे स्वच्छ पात्र में उँडेल देने से, उस पानी में कीचड़ का अत्यन्त अभाव हो जाता है, उसी प्रकार अत्यंताभाव हो जाने से परिणाम अत्यंत निर्मल हो जाते हैं। जिस-जिस गुणस्थान में जिस-जिस प्रकृति का क्षय (सत्त्व - व्युच्छित्ति) हो जाता है, वह प्रकृति पुन कभी बंध को प्राप्त होकर सत्त्वरूप नहीं हो सकती। सबसे पहले चतुर्थ, पंचम, षष्ठ एवं सप्तम गुणस्थान वर्ती जीव अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण एवं अनिवृत्तिकरण के द्वारा चार अनन्तानुबन्धी कषायों का क्षय (नाश) करता है। ये ही तीन करण पुनः मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्व - प्रकृति का क्षय करते हैं।
इस प्रकार यह आत्मा इन सात प्रकृतियों की सत्ता - व्युच्छित्ति करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है। अब यह अधिक से अधिक चार भव तक संसार में रह सकता है। काल की अपेक्षा अधिक से अधिक ३३ सागर से कुछ अधिक काल तक संसार में रह सकता है। इसके बाद नियम से मुक्त होता है।
जिस समय सम्यग्दृष्टि जीव क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होने के सम्मुख होता है, तब अन्तर्मुहूर्त काल में अधःकरण परिणामों (सप्तम गुणस्थान) से अपूर्वकरण परिणामों (आठवें गुणस्थान) को प्राप्त कर लेता है और प्रत्येक क्षण में कर्मप्रदेशों की असंख्यात गुणी निर्जरा करता है। प्रत्येक समय में स्थिति काण्डघात भी होता है। असंख्यात स्थिति-बंधापसरण होते हैं। अप्रशस्त प्रकृतियों का असंख्यात अनुभाग काण्ड - घात भी होता है । परन्तु एक भी कर्मप्रकृति समूल क्षय नहीं होती ।
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