Book Title: Aradhanasamucchayam
Author(s): Ravichandramuni, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 214
________________ आराधनासमुच्चयम् । २०५ तीनों अंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रवृषभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्ण, प्रशस्त रस, प्रशस्त गन्ध और प्रशस्त स्पर्श, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और देवगत्यानुपूर्वी ये दो, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, निर्माण और तीर्थंकर । एक उच्चगोत्र शुभ है और सातावेदनीय, ये बयालीस प्रकृतियाँ पुण्यसंज्ञक हैं। यहाँ वर्णादिक के अवान्तर भेद बीस न गिना कर कुल चार भेद गिनाये हैं। इस पुण्यसंज्ञा वाले कर्मप्रकृति समूह से जो भिन्न कर्मसमूह है वह पापरूप कहा जाता है। वह बयासी प्रकार का है। यथा - ज्ञानावरण की पाँच प्रकृतियाँ, दर्शनावरण की नौ प्रकृतियाँ, मोहनीय की छब्बीस प्रकृतियाँ, अन्तराय की पाँच प्रकृतियाँ, नरकगति, तिर्यंचगति, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त वर्ण, अप्रशस्त रस, अप्रशस्त गन्ध और अप्रशस्त स्पर्श, नरकगत्यानुपूर्वी और तिर्थगत्यानुपूर्वी ये दो, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्ति, साधारण-शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और अयश:कीर्ति ये नामकर्म की चौंतीस प्रकृतियाँ तथा असाता वेदनीय, नरकायु और नीच गोत्र। इन पुण्य एवं पाप प्रकृतियों वाले शुभाशुभ कमी क विपाक (फल) का यितन करना तथा उनके भेद-प्रभेदों का चिन्तन करना विपाकविचयनामकधर्मध्यान है। जैसे पुण्य प्रकृति कहने से अभेदरूप से शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्र ये पुण्य प्रकृति हैं - इनसे भिन्न पाप प्रकृति हैं, भेद रूप से कथन ऊपर किया पुण्य कर्मप्रकृति के उदय से तीर्थंकर पद, इन्द्रपद, चक्रवर्तीपद तथा यश, सुस्वर आदि शुभ फल प्राप्त होता है और पाप कर्मप्रकृति के उदय से नरक, तिर्यंच और मानवजन्य दुःखों को भोगता है। संसार में परिभ्रमण का कारण शुभाशुभ कर्म ही है। ऐसा चिंतन करना विपाकविचयनामक धर्म ध्यान है। अथवा, जीवों को अनेक भवों में भ्रमण, सुख, दुःख की प्राप्ति कर्मों के उदय से होती है। ज्ञानावरणादि आठ कर्मों की प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाग बंध इनका उदय, उदीरणा, संक्रमण, बंध एवं मोक्ष-कर्मों के फल आदि का चिंतन विपाकविचय धर्म ध्यान है। संस्थान धर्म ध्यान का लक्षण द्वादशधा गदितानुप्रेक्षा संचिन्तनं वदन्त्यार्याः । संस्थानविचयनामध्यानमनेकप्रभेदसंयुक्तम्॥१३१॥ अन्वयार्थ - द्वादशधा • बारह प्रकार की। अनुप्रेक्षा - अनुप्रेक्षा । गदिता - कही है। उन १२ भावनाओं का । अनेकप्रभेद-संयुक्तं - अनेक भेदों से युक्त। संचिंतनं - चिंतन करने को। आर्याः - आर्य पुरुष। संस्थानविचयनामध्यानं - संस्थान विचय नाम का ध्यान । वदन्ति - कहते हैं। अर्थ - जिनेन्द्र भगवान ने अशरण आदि १२ भावनाओं का कथन किया है। उनके अनेक भेद हैं। उन सर्व भेदों से युक्त १२ भावनाओं का चिंतन करने को आचार्य संस्थानविचय-धर्म ध्यान कहते हैं।

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