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आराधनासमुच्चयम् ४ १००
है जैसे अधःक्षेपण को अवक्षेपण कहते हैं, अवधिज्ञान भी नीचे की ओर बहुत पदार्थों को विषय करता है। नीचे गौरवधर्मवाला होने से पुद्गल की अवाग् संज्ञा है, उसे जो धारण करता है अर्थात् जानता है, वह अवधि है । अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, कालादि की मर्यादा से सीमित ज्ञान अवधिज्ञान है।
जो प्रत्यक्षज्ञान अन्तिम स्कन्धपर्यन्त परमाणु आदिक मूर्त द्रव्यों को जानता है उसको अवधिज्ञान जानना चाहिए । महास्कन्ध से लेकर परमाणु पर्यन्त समस्त पुद्गल द्रव्यों को, असंख्यात लोकप्रमाण क्षेत्र, काल और भावों को तथा कर्म के सम्बन्ध से पुद्रल भाव को प्राप्त हुए जीवों को जो प्रत्यक्ष रूप से जानता हैं, उसे अवधिज्ञान कहते हैं।
अवधिज्ञान का विषय रूपी पदार्थ ही है । इसको एकदेशप्रत्यक्ष कहते हैं क्योंकि यह ज्ञान इन्द्रिय और मन की अपेक्षा से नहीं होता है अपितु साक्षात् आत्मा से ही होता है।
यह अवधिज्ञान देशावधि, परमावधि और सर्वावधि के भेद से तीन प्रकार का है।
देशावधि ज्ञान के दो भेद हैं- भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय |
जिस अवधिज्ञान के होने में भव निमित्त है, वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है। वह देव और नारकियों के जानना चाहिए। भव, उत्पत्ति और प्रादुर्भाव ये पर्यायवाची नाम हैं। जिस अवधिज्ञान का निमित्त नरक व देव भव है वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है । सम्यक्त्व से अधिष्ठित अणुव्रत और महाव्रत जिस अवधिज्ञान के कारण हैं, वह गुणप्रत्यय अवधिज्ञान है ।
देश का अर्थ सम्यक्त्व है, क्योंकि वह संयम का अवयव है। वह जिस ज्ञान की अवधि अर्थात् मर्यादा है वह 'देशावधिज्ञान' है। देवों और नारकियों के भवप्रत्यय और तिर्यंचों एवं मनुष्यों के गुणप्रत्यय अवधिज्ञान होता है। क्षयोपशम के कारण गुणप्रत्यय अवधिज्ञान छह प्रकार का है : वर्द्धमान, हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी।
सम्यग्दर्शनादि गुणों के वृद्धिंगत होने से जो अवधिज्ञान जितने प्रमाण में उत्पन्न हुआ था उससे असंख्यात लोकप्रमाण तक बढ़ता जाता है, जैसे ईंधन के बढ़ते रहने से अग्नि बढ़ती जाती है। ऐसे अवधि को वर्द्धमान अवधि कहते हैं। सम्यग्दर्शनादि गुणों की हानि और संक्लेश की वृद्धि होने से जितने प्रमाण उत्पन्न हुई थी उससे अंगुल के असंख्यातवें भाग तक घटते जाना जैसे ईंधन के घट जाने से अग्नि घटती जाती है ऐसी अवधि हीयमान कहलाती है। सम्यग्दर्शनादि गुणों के अवस्थित रहने से जो अवधि जितने प्रमाण में उत्पन्न हुई थी उतनी ही बनी रहना, न घटती है, न बढ़ती है, जैसे लिंग घटता-बढ़ता नहीं, ऐसे अवधिज्ञान को अवस्थित कहते हैं। सम्यग्दर्शनादि गुणों में कभी हानि और कभी वृद्धि होने से जितने प्रमाण में जो अवधि उत्पन्न हुई है उससे हानि और वृद्धि दोनों रूप होते रहना अर्थात् जितना बढ़ना चाहिए वहाँ तक बढ़ते रहना और जितना घटना चाहिए उतना घटना; जैसे वायु के वेग से प्रेरित जल की तरंगें होती हैं, ऐसे अवधि को अनवस्थित कहते हैं।