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आराधनासमुच्चयम् - १०५
अन्वयार्थ - अर्थानां - पदार्थों के । थाथात्म्याग्रहणात् - वास्तविक स्वरूप के ग्रहण का अभाव होने से। संज्ञान - संज्ञान । एव - ही। अज्ञानं - अज्ञान हो जाता है। युक्ताचाराभावात् - युक्तिपूर्वक आचार का अभाव होने से। पुत्रस्य - पुत्र की। अपुत्रसंज्ञावत् - अपुत्र संज्ञा हो जाती है ।।८।।
अर्थ • ज्ञान आत्मा का स्वभाव है, जिसका लक्षण है पदार्थों को जानना। परन्तु जब यह ज्ञान मिथ्यात्व कर्म के उदय से वस्तु के याथात्म्य स्वरूप को ग्रहण न करके विपरीत ग्रहण करता है तो वही ज्ञान अज्ञान रूप हो जाता है।
मिथ्यात्व सहित होने से ज्ञान अपना वास्तविक कार्य करने में असमर्थ हो जाता है। संशय, विमोह, विभ्रम से युक्त होता है, न्यूनता आदि दोषों से युक्त होकर यथावस्थित प्रतिभास से शून्य होता है, अत: अज्ञान कहलाता है। इन तीन ज्ञानों में, जो वास्तव में अज्ञान हैं, अर्थात् ज्ञान में विशेषता होते हुए भी यदि वह सम्यग्दर्शन सहित नहीं तो उसे वास्तव में अज्ञान कहते हैं, वह अज्ञान क्षायोपशमिक भाव है।
ये तीनों कुज्ञान आत्महित में कारण नहीं हैं। जैसे किसी के पुत्र तो है परन्तु कार्य नहीं करता है न तो माता-पिता की सेवा करता है और न गृहस्थ सम्बन्धी कार्य की सम्हाल करता है, व्यसनी है, वह पुत्र नहीं अपुत्र है; उसी प्रकार इन तीन कुज्ञानों को समझना चाहिए। क्योंकि ये तीनों कुज्ञान आत्महितकर नहीं हैं अर्थात् इनसे आत्मकल्याण नहीं होता है।
मन:पर्यय ज्ञान का विवेचन अन्यमनोगतविषयः स्वचेतसा संविलोक्यते येन।
तद्धीपर्ययबोधनमृजुविपुलविकल्पतो द्विविधम् ॥८१॥ अन्वयार्थ - येन - जिस। स्वचेतसा - स्वचित (ज्ञान) के द्वारा। अन्यमनोगतविषयः - दूसरों का मनोगत विषय। संविलोक्यते - देखा जाता है। तत् - वह। धीपर्ययबोधनं - मनःपर्ययज्ञान। ऋजुविपुलविकल्पतः - ऋजु और विपुल के भेद से। द्विविधं - दो प्रकार का है।
अर्थ - जो ज्ञान दूसरे के मनोगत विषय को जानता है, उसे मनःपर्यय ज्ञान कहते हैं। वह ऋजुमति और विपुलमति के भेद से दो प्रकार का है।
.. ऋजुधीपर्ययबोधनमुत्तममध्यमजघन्यतस्त्रिविधम् ।
मध्यमनेकविकल्पं श्रेष्ठजघन्यद्वयमभेदम् ॥८२॥ अन्वयार्थ - ऋजुधीपर्ययबोधनं - ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान। उत्तममध्यमजयन्यतः - उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से । त्रिविधं - तीन प्रकार का है। उनमें। श्रेष्ठजधन्यद्वयं - उत्कृष्ट और जघन्य ये दोनों। अभेदं - भेद रहित हैं। मध्यं - मध्यम ज्ञान के। अनेकविकल्पं - अनेक विकल्प हैं।
अर्थ - ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार का है। उसमें जो उत्तम और जघन्य ऋजुमति ज्ञान है उसके कोई भेद नहीं है अर्थात् एक ही प्रकार का है। परन्तु मध्यम