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आराधनासमुच्चयम् १०८
ऋजुमति और विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान का विषय शब्दगत एवं अर्थगत दोनों ही प्रकार का होता है।
ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान वर्तमान जीवों के द्वारा चिन्त्यमान त्रिकालविषयक रूपी पदार्थों को जानता है, परन्तु विपुलमति मन:पर्ययज्ञान भूत, भविष्यत् और वर्तमान इन तीनों कालों के पदार्थों को जानता है अर्थात् जिस पदार्थ का भूतकाल में चिन्तन किया था, भविष्य में जिसका चिन्तन करेगा तथा वर्तमान में जिसका चिन्तन कर रहा है, उन सबको विपुलमतिज्ञान जानता है। मानव क्षेत्र में रहने वाले समस्त मानवों, तिर्यंचों और देवों के मानसिक विचारों को जानने में यह ज्ञान समर्थ है। यह मनःपर्ययज्ञान सात ऋद्धियों में से किसी एक ऋद्धि के धारक और विशिष्ट निर्मल तथा उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त चारित्र के धारी मुनिराजों के ही होता है।
विपुलमति ज्ञान होने के बाद छूटता नहीं है अर्थात् विपुलमति ज्ञान के धारी मुनिगण उसी भव में केवलज्ञान प्राप्त कर निर्वाणपद को प्राप्त कर लेते हैं। परन्तु ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञानी के यह नियम नहीं है क्योंकि ऋजुमति ज्ञानी उसी भव में मोक्ष जा भी सकता है और नहीं भी जा सकता है। ऋजुमति ज्ञान होममूटने के बाद अर्ध-उदा परावर्तन काल तक संसार में परिभ्रमण भी कर सकता है।
__ ऋजुमति का जघन्य द्रव्य औदारिक शरीर के निर्जीर्ण समयप्रबद्ध प्रमाण है और उत्कृष्ट द्रव्य चक्षुरिन्द्रिय के निर्जरा द्रव्यप्रमाण है। क्षेत्र की अपेक्षा ऋजुमतिज्ञान कम-से-कम (जघन्य) दो तीन कोस की बात जानता है और उत्कृष्ट ७-८ (सात-आठ) योजन में स्थित मानव के हृदय की बात जानता है। काल की अपेक्षा जघन्य दो-तीन भव की, उत्कृष्ट सात-आठ भव की बात जानता है। भाव की अपेक्षा ऋजुमति ज्ञान जघन्य वा उत्कृष्ट आवलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण जानता है तथापि जघन्य प्रमाण से उत्कृष्ट प्रमाण असंख्यात गुणा अधिक है।
विपुलमति मन:पर्ययज्ञान क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य (कम-से-कम) सात-आठ योजन में स्थित मनुष्यों के हृदयों के विचारों को जानता है और उत्कृष्ट मानवलोकप्रमाण क्षेत्र में स्थित मानव, तिर्यंच और देवों के मानसिक विचारों को जानता है। काल की अपेक्षा जघन्य आठ-नौ भव की बात जानता है और उत्कृष्ट पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण भवों को जानता है।
भाव की अपेक्षा ऋजुमति मन:पर्यय ज्ञान के उत्कृष्ट विषय से असंख्यातगुणा विषय विपुलमति ज्ञान का है और उत्कृष्ट विषय असंख्यात लोकप्रमाण है। द्रव्य की अपेक्षा विपुलमति जघन्य से मनोवर्गणाओं के विकल्प में अनन्त का भाग देने से जो लब्ध आता है उतना जानता है और उत्कृष्ट मनोवर्गणा में ऋजुमति के उत्कृष्ट द्रव्य का भाग देने से जो लब्ध आता है, उतना जानता है।
एतानि ज्ञानानि स्वावरणानां क्षयोपशमजानि।
केवलमशेषवस्तुस्वरूपसंवेदि तत् क्षयजं ॥८४ ॥ अन्वयार्थ - एतानि - ये। ज्ञानानि - ज्ञान। स्वावरणानां - अपने-अपने आवरण के।