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आराधनाममुच्चयम् १३५
(५) सचित्तत्याग प्रतिमा - सचित्त वनस्पति - जल आदि नहीं खाना।
(६) रात्रिभुक्ति व्रत प्रतिमा - दिवा मैथुन का त्याग तथा सूर्योदय से ४८ मिनट तक और सूर्यास्त के ४८ मिनट पूर्व तक आहार का त्याग करना।
(७) ब्रह्मचर्य व्रत प्रतिमा - मन, वचन और काय से स्त्रीमात्र की अभिलाषा नहीं करना। पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना ।
(८) आरम्भत्याग प्रतिमा - कृषि, वाणिज्य आदि आरंभ का त्याग करना। (९) परिग्रहत्याग प्रतिमा - वस्त्र के सिवाय दस प्रकार के परिग्रह का त्याग करना।
(१०) अनुमतित्याग प्रतिमा - कृषि आदि आरम्भ, परिग्रह, विवाह आदि लौकिक कार्यों में अनुमति देने के त्याग को अनुमतित्याग प्रतिमा कहते हैं। यह अनुमतित्याग प्रतिमाधारी श्रावक जिनमन्दिर या धर्मशाला में रहता है, मध्याह्न काल में बुलाने पर अपने घर या अन्य श्रावकों के घर भोजन करता है।
(११) उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा - घर का त्याग कर मुनियों के पास वन में जाकर गुरु के समक्ष व्रत धारण कर एक लंगोटी मात्र रखता है। केशलोच करता है और हाथ में भोजन करता है। इसमें आदि की छह प्रतिमा जघन्य, सातवीं आठवीं और नवमी मध्यम और शेष की दो उत्तम कहलाती हैं।
इस प्रकार श्रावक की ये ११ प्रतिमाएँ देशविरत कहलाती हैं। इनका पालन करने वाला श्रावक देशविरति अथवा सागार कहलाता है। इसका नाम विकल चारित्र है।
सकलव्रत या चारित्र का कथन इस प्रकार है : इसके व्रत, समिति, गुप्ति आदि भेद हैं
पंचेन्द्रिय संवरण - कछुए के समान अपनी इन्द्रियों को विषयों से रोक लेना है। व्रतों की रक्षा करने के लिए पच्चीस क्रिया अर्थात् पच्चीस भावनाएँ होती हैं। पाँच महाव्रत, पच्चीस क्रियाओं के होने पर ही होते हैं। यह पंचेन्द्रिय रोध, पंच महाव्रत, पंचसमिति, पच्चीस क्रिया और तीन गुप्ति अनगार चारित्राचार
अमनोज्ञ (अप्रिय) और मनोज्ञ (प्रिय) सजीव पदार्थ इष्ट स्त्री, पुत्र, वाहन आदि तथा अजीव पदार्थ अशन, वसन, आभूषण, कनक, काय आदि में राग-द्वेष नहीं करना पंचेन्द्रिय संवर (निरोध) है अर्थात् प्रिय चेतन-अचेतन द्रव्यों में राम नहीं करना और अप्रिय में द्वेष नहीं करना पंचेन्द्रिय निरोध है।
हिंसा से प्राणियों के प्राणों का वियोग करने से विरत होना, बस-स्थावर जीवों का घात नहीं करना अहिंसा महाव्रत है।
असत्य, कठोर, निन्दनीय, वचन बोलने का त्याग करना सत्य महाव्रत है। बिना दी हुई किसी भी वस्तु को ग्रहण नहीं करना अचौर्य महाव्रत है। मन, वचन, काय से मैथुन का त्याग कर अब्रह्म से विरत होकर पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चतुर्थ महाव्रत अर्थात् ब्रह्मचर्य महाव्रत है। पूर्ण रूप से परिग्रह का