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आराधनासमुच्चयम् १७४
पर्यन्त व्याख्यान, प्रवचन आदि में केवल कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त होता है और थूकने और पेशाब आदि के करने पर कायोत्सर्ग करना प्रसिद्ध ही है।
तप - कर्मों का क्षय करने के लिए जो तपा जाता है, जो कर्म-ईंधन को भस्म करने में समर्थ है और पाँचों इन्द्रिय रूपी हाथियों को वश में करने के लिए अंकुश के समान है उसे तप कहते हैं। वह अनशनादि के भेद से अनेक प्रकार का है।
व्रतों में अतिचार लगने पर उनकी शुद्धि करने के लिए उपवास, रसपरित्याग, एकासन, आचाम्ल आदि प्रायश्चित्त दिया जाता है वह तप नामक प्रायश्चित्त है।
छेद - छेद का अर्थ है विदारणा, टुकड़े करना, नाश करना इत्यादि । यहाँ पर प्रायश्चित्त का प्रकरण है अत: व्रतों में अनाचार आदि दोष लग जाने पर मुनिराज को एक दिन, एक पक्ष, एक मास, एक ऋतु, एक अयन और एक वर्ष आदि तक की दीक्षा पर्याय का छेद करके इच्छित पर्याय से नीचे की भूमिका में स्थापित करना छेद नामक प्रायश्विा तपस्वी झार..तार व्रतों की विराधना करता है, उसको यह प्रायश्चित्त दिया जाता है।
परिहार - पक्ष, मास, वर्ष आदि की अवधि के लिए अपराधी साधु को संघ से पृथक् कर देना परिहार नामक प्रायश्चित्त है। यह परिहार प्रायश्चित्त दो प्रकार का है- अनवस्थाप्य और पारंचिक ।
अनवस्थाप्य परिहार प्रायश्चित्त दो प्रकार का है - स्वगण अनुपस्थापन और परगण अनुपस्थापन ।
जिसको स्वगणानुपस्थापन प्रायश्चित्त दिया जाता है वह साधु संघस्थ साधुओं से बत्तीस धनुष दूर बैठता है। अपने से छोटे-बड़े मुनियों को नमस्कार करता है, परन्तु कोई भी साधु उसको प्रतिवंदना नहीं करते हैं। वह अपराधी साधु अपने गुरु के साथ वार्तालाप करता है, आलोचना करता है, अन्य किसी मुनिश्रावक आदि के साथ वार्तालाप नहीं करता, न ही आलोचना करता है और मौन रखता है। अपनी पीछी को उलटी रखता है। कम-से-कम पाँच-पाँच उपवास और अधिक से अधिक छह-छह महीने के उपवास करता रहता है। इस प्रकार १२ वर्ष तक एक उपवास और १ पारणा करना उत्तम, मध्यम में एक महीने में पाँच उपवास से अधिक और १५ उपवास से एक न्यून करना और जघन्य में एक महीने में पाँच उपवास करना होता है। इसका काल १२ वर्ष का है। यह स्वगण (निजगण) अनुपस्थापन नामक प्रायश्चित्त है।
महा अपराधी साधु को आचार्य दूसरे आचार्य के संघ में भेजते हैं। वे दूसरे संघ के आचार्य भी उसकी आलोचना सुनकर बिना प्रायश्चित्त दिये तीसरे संघ में भेज देते हैं। इस प्रकार सात संघों के आचार्यों के पास भेजते हैं, परन्तु कोई भी आचार्य उसको प्रायश्चित्त नहीं देते। सातवें आचार्य पुनः उस अपराधी मुनि को उसके संघ के आचार्य के समीप भेज देते हैं। वे आचार्य उसको स्वगणानुपस्थापन विधि में लिखित प्रायश्चित्त देते हैं। यह परगणानुपस्थापन प्रायश्चित्त है।
पारंचिक - सर्वप्रथम आचार्य संधस्थ सर्व मुनिराजों को बुलाकर घोषणा करते हैं कि - "यह