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आराधनासमुच्चयम् १४९
परिहारविशुद्धि संयम को नहीं छोड़ने वाले जीव के उपशम श्रेणी पर चढ़ने के लिए दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम होना भी संभव नहीं है अर्थात् परिहारविशुद्धि संयत के उपशम सम्यक्त्व व उपशम श्रेणी होना सम्भव नहीं।
परिहारविशुद्धि संयत जीव के विक्रिया ऋद्धि और आहारक ऋद्धि होने का विरोध है।
जिनकी आत्माएँ ध्यान रूपी सागर में निमग्न हैं, जो वचनयम का (मौन का) पालन करते हैं और जिन्होंने आने-जाने रूप सम्पूर्ण शरीर सम्बन्धी व्यापार संकुचित कर लिया है, ऐसे जीवों के शुभाशुभ क्रियाओं का परिहार बन ही नहीं सकता है। क्योंकि गमनागमन रूप क्रियाओं में प्रवृत्ति करने वाला ही परिहार कर सकता है, प्रवृत्ति नहीं करने वाला नहीं। इसलिए ऊपर के आठवें आदि गुणस्थानों में परिहारशुद्धि संयम नहीं बन सकता है।
सूक्ष्म सांपराय संयम का कथन सूक्ष्मीकृते तु लोभकषाये श्रेणिद्वये निवृत्तिमयैः।
परिणामैर्भवति यते: सूक्ष्मचरित्रं गुणपवित्रम् ॥९३ ।। अन्वया - निवृनि: - अनियनिकरण। परिणामः - परिणामों के द्वारा । यते: - मुनिराज के । श्रेणिद्वये - उपशमक और क्षपक दोनों श्रेणी में, लोभकवाये - लोभकषाय के । सूक्ष्मीकृते - सूक्ष्म कर देने पर। गुणपवित्रं - पवित्र गुण वाला | सूक्ष्मचारित्रं - सूक्ष्म साम्पराय चारित्र । भवति - होता है। तु - यह शब्द पादपूर्ति हेतु है। यह चारित्र सूक्ष्मसापराय गुणस्थान में ही होता है।
अर्थ - जिन्होंने उपशम और क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर अनिवृत्तिकरण परिणामों के द्वारा लोभकषाय को सूक्ष्म कर दिया है अर्थात् अत्यन्त निर्मल अखण्डित चारित्र के बल से कषाय के विषांकुरों को खोंट दिया है, मोहनीय कर्म के बीज रूप लोभ को अत्यन्त सूक्ष्म कर विनाश के मुख में धकेल दिया है उस परम सूक्ष्म लोभ वाले मुनिराज के सूक्ष्मसाम्पराय नामक चारित्र होता है।
____ मोहनीय कर्म का उपशमन या क्षपण करते समय सूक्ष्म लोभ का वेदन करना सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र है। यह सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में ही होता है।
सूक्ष्म अतीन्द्रिय निज शुद्धात्मा के अनुभव से कषायों का उपशमन वा क्षपण करते समय दसवें गुणस्थान में जो सूक्ष्म सांपराय (कषाय) का सद्भाव रहता है, उसको सूक्ष्म साम्पराय कहते हैं।
सूक्ष्म कषाय को सूक्ष्मसाम्पराय कहते हैं, सूक्ष्मसाम्पराय में जिन संयतों ने प्रवेश किया है, उन्हें सूक्ष्मसाम्परायप्रविष्ट शुद्धिसंयत कहते हैं। इसके अन्तर्गत समय में जो सूक्ष्म कृष्टिगत लोभ का अनुभव करता है और जिसने अनिवृत्तिकरण इस संज्ञा को नष्ट कर दिया है, ऐसा मुनि सूक्ष्मसाम्पराय संयम वाला