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आराधनासमुच्चयम् १६५
आठ वर्ष व्यतीत होते हैं। दो वर्ष तक आचाम्ल व निर्विकृति भोजन ग्रहण करके रहे। एक वर्ष केवल आचाम्ल भोजन ग्रहण करे। छह महीने तक मध्यम तों द्वारा शरीर को क्षीण कर और अन्त के छह महीनों में उत्कृष्ट तपों द्वारा शरीर को क्षीण करे।
तदनन्तर संघ के समुदाय में निर्यापकाचार्य क्षपक को सविकल्पक प्रत्याख्यान अर्थात् चार प्रकार के आहारों का त्याग कराते हैं और इतर प्रत्याख्यान भी गुरु की आज्ञा से वह क्षपक करता है अथवा क्षपक के चित्त की एकाग्रता के लिए पानक के अतिरिक्त असन खाद्य और स्वाद्य ऐसे तीन प्रकार के आहारों का त्याग कराना चाहिए। जब क्षपक की शक्ति बहुत क्षीण हो जाये तब पानक का भी त्याग कराना चाहिए। अर्थात् जो परिषह सहन करने में खूब समर्थ है उसको चार प्रकार के आहार का और असमर्थ साधु को तीन प्रकार के आहार का त्याग कराना चाहिए।
निर्यापकाचार्य के द्वारा आहाराभिलाषा के दोष बताने पर भी क्षपक उस आहार में यदि रागयुक्त हो रहा हो तो समाधिमरण की इच्छा रखने वाले उस क्षपक के सम्पूर्ण आहारों में से एक-एक आहार को घटाते हैं, अर्थात् क्षपक से एक-एक आहार का क्रम से त्याग कराते हैं। आचार्य उपर्युक्त क्रम से मिष्टाहार का त्याग कराकर क्षपक को सादे भोजन में स्थिर करते हैं। तब वह क्षपक भात वगैरह अशन और अपूप वगैरह खाद्य पदार्थों को क्रम से कम करता हुआ पानक आहार करने में अपने को उद्यत करता है।
पानक के अनेक भेद हैं। संस्तर पर सोया हुआ क्षपक जब क्षीण होगा तब पानक के विकल्प का भी उपर्युक्त सूत्रों के अनुसार त्याग कराना चाहिए।
शरीर-सल्लेखना के लिए जो तपों के अनेक विकल्प पूर्व में कहे हैं, उनमें आचाम्ल भोजन करना उत्कृष्ट विकल्प है, ऐसा महर्षिगण कहते हैं। दो दिन का उपवास, तीन दिन का उपवास, चार दिन का उपवास, पाँच दिन का उपवास ऐसे उत्कृष्ट उपवास होने के अनन्तर मित और हल्का ऐसा कांजी भोजन ही क्षपक बहुधा करता है। आचाम्ल से कफ का क्षय होता है, पित्त का उपशम होता है और वात का रक्षण होता है अर्थात् वात का प्रकोप नहीं होता। इसलिए आचाम्ल में प्रयत्न करना चाहिए। जो आहार कटुक, तिक्त, आम्ल, कसायला, नमकीन, मधुर, विरस, दुर्गन्धित, अस्वच्छ, उष्ण और शीत नहीं है, ऐसा
आहार क्षपक को देना चाहिए अर्थात् मध्यम रसों का आहार देना चाहिए। जो पेय पदार्थ क्षीण क्षपक को दिया जाता है, वह कफ को उत्पन्न करने वाला नहीं होना चाहिए। क्षपक को जो पथ्य हितकर हो, ऐसा पानक देने योग्य है, शरीर की प्रकृति तथा क्षेत्र काल के अनुसार देना चाहिए।
क्षपक को सल्लेखना धारण कराने वाला आचार्य आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्, कर्ता, आयापायदर्शनोद्योतक और उत्पीलक होता है। इनके अतिरिक्त वह अपरिस्रावी, निर्वापक, प्रसिद्ध कीर्तिमान और निर्यापक के गुणों से पूर्ण होना चाहिए - जो आचार्य स्वयं पंचाचार में तत्पर रहते हैं, अपनी सब चेष्टाएँ जो समितियों के अनुसार ही करते हैं वे ही क्षपक को निर्दोष पंचाचार में प्रवृत्ति करा सकते हैं। ऐसे आचार्य के समीप सल्लेखना धारण कर अंत में सर्व प्रकार के आहार का त्याग कर यम सल्लेखना धारण कर णमोकार मंत्र का जप करते हुए प्राणों का विसर्जन करना सविचार भक्त प्रत्याख्यान है।