________________
आराधनासमुच्चयम् १६४
इस प्रकार समस्त परिषहीं को निराकुलता से सहन करने वाला यह क्षपक शरीर, वसतिका, गण और परिचारक मुनि इन सर्व वस्तुओं में ममत्व रहित होता है। रागद्वेष को छोड़कर समता भाव में तत्पर होता है। मित्र, बंधु, माता, पिता, गुरु वगैरह, शिष और धार्मिक दर के ऊपर दीक्षाग्रहण के पूर्व में अथवा समाधि से अनुगृहीत होने के पूर्व जो रागद्वेष उत्पन्न हुए थे, उनका त्याग करता है। इष्ट और अनिष्ट ऐसे शब्द, रस, गन्ध, स्पर्श, रूप विषयों में, इह लोक और परलोक में, जीवित और मरण में, मान और अपमान में यह क्षपक समान भाव धारण करता है। क्योंकि ये राग-द्वेष रत्नत्रय, उत्तम ध्यान और समाधिमरण का नाश करते हैं, इसलिए क्षपक अपने हृदय से इनको दूर करता है। सम्पूर्ण रत्नत्रय पर आरूढ़ होकर यह क्षपक वसतिका, तृणादि का संस्तर, पानाहार अर्थात् जलपान, शरीर और वैयावृत्य करने वाले परिचारक मुनि, इनका निर्मोह होकर त्याग करता है। इस प्रकार सम्पूर्ण वस्तुओं में समता भाव धारण कर यह क्षपक अन्तःकरण को निर्मल बनाता है। उसमें मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भावनाओं को स्थान देता है। कषायों के साथ युद्ध करते समय ध्यान मुनि को शस्त्र के समान उपयोगी होता है। जैसे शस्त्र रहित वीर पुरुष युद्ध में शत्रु का नाश नहीं कर सकता है वैसे ही ध्यान के बिना कर्म शत्रु को मुनि नहीं जीत सकता है।
जितना कुछ भी परिग्रह है वह सब राग-द्वेष को उत्पन्न करने वाला है। नि:संग होकर अर्थात् परिग्रह को छोड़ने से क्षपक रागद्वेष को भी जीत लेता है। कन्दी आदि पाँच कुत्सित भावनाओं का त्याग कर जो धीर मुनि पाँच समिति और तीन गुप्तियों का पालन कर सम्पूर्ण परिग्रहों से निस्पृह रहते हैं वे ही भावना के आश्रय से रत्नत्रय में प्रवृत्त होते हैं। तप, श्रुताभ्यास, भय रहित होना, एकत्व, धृतिबल, ये पाँच प्रकार की असंक्लिष्ट भावनाएँ हैं, जिन्हें क्षपक को भाना चाहिए।
ऊर्ध्व, अधो व तिर्यक् लोक में मैंने बालमरण बहुत किये हैं, अब दर्शरज्ञानमयी होकर संन्यासपूर्वक पण्डितमरण करूंगा। यदि संन्यास के समय क्षुधादि की वेदना उपजे तो नरक के स्वरूप का चिन्तन करना चाहिए तथा जन्म, जरा, मरण रूप संसार में मैंने कौन से दुःख नहीं उठाये ऐसा चिन्तन करना चाहिए | चतुर्गतिरूप संसार में भ्रमण करते हुए मैंने सभी पुद्गल बहुत बार भक्षण किये हैं और खल-रस रूप से परिणमित किये हैं परन्तु आज तक मेरी इनसे तृप्ति नहीं हुई है। आहार के कारण ही तन्दुल मत्स्य सातवें नरक जाता है। इसलिए जीवघात से उत्पन्न सचित्त आहार मन से भी याचना करने योग्य नहीं है। ऐसा चिंतन करके आहारादिक की अभिलाषाओं का शमन करना चाहिए।
जो क्षपक आहारादि से विरक्त होकर अपने धैर्य को प्रगट करता है वहीं समाधिमरण से मरकर उत्तम सुख को प्राप्त कर सकता है।
भक्त प्रत्याख्यान का उत्कृष्ट काल १२ वर्ष का है और जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त का है। उत्कृष्ट १२ वर्ष के काल को व्यतीत करने का क्रम इस प्रकार है। प्रथम चार वर्ष अनेक प्रकार के कायक्लेशों द्वारा बिताये, आगे के चार वर्षों में दूध, दही, घी, गुड़ आदि रसों का त्याग करके शरीर को कृश करे। इस तरह