________________
आराधनासमुच्चयम,१५९
तक अनेक भेद होते हैं। अर्थात् एक दिन में दो भोजन बेला कही है। चार भोजन बेला का त्याग उसे चतुर्थ उपवास कहते हैं। छह भोजन बेला का त्याग दो उपवास कहे जाते हैं। इसी को षष्टम तप कहते हैं। षष्टम, अष्टम, दशम, द्वादश, पन्द्रह दिन, एक मास त्याग, कनकावली, एकावली, मुरजबंध, विमानपंक्ति, सिंहनिष्क्रीड़ित इत्यादि जो भेद जहाँ हैं वे सब साकांक्ष अनशन तप हैं।।
अधृत काल या सामान का लक्षणा -- अक्तप्रत्याख्यान, इंगिनीमरण, प्रायोपगमनमरण अथवा अन्य भी अनेक प्रकार के मरणों में जो मरण पर्यन्त आहार का त्याग करना है वह निराकांक्ष तप कहलाता है। इसका दूसरा नाम अनवधृत काल या सर्वानशन भी है।
शरीर छूटने तक उपवास धारण करना अनियमित काल अनशन कहलाता है। मरण समय में अर्थात् संन्यास काल में मुनि सर्वानशन तप करते हैं।
अनशन के कारण व प्रयोजन - दृष्टफल मन्त्रसाधना आदि की अपेक्षा किये बिना संयम की सिद्धि, राग का उच्छेद, कर्मों का विनाश, ध्यान और आगम की प्राप्ति के लिए अनशन तप किया जाता है। यह प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम की सिद्धि के लिए किया जाता है, क्योंकि भोजन के साथ दोनों प्रकार के असंयम का अविनाभाव देखा जाता है।
अनशन में लौकिक फल की इच्छा नहीं होनी चाहिए। मंत्रसाधनादि कुछ भी दृष्टफल की अपेक्षा के बिना किया गया उपवास अनशन कहलाता है। "सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः' इस सूत्र में से सम्यक् शब्द की अनुवृत्ति होती है। इसी ‘सम्यक्' पद की अनुवृत्ति आने से सर्वत्र (अनशन तप में भी) दृष्टफल निरपेक्षता का होना तपों में अनिवार्य है। इसलिए सभी तपों में लौकिक फल की कामना नहीं होनी चाहिए (रा.वा. ९/१९.१६/६१९/२४)
निराकांक्ष अनशन तीन प्रकार का है प्रायोपगमनमरण, इंगिनीमरण और भक्तप्रत्याख्यानमरण |
भोजन का क्रमिक त्याग करके शरीर को कृश करने की अपेक्षा तीनों समान हैं। अन्तर है शरीर के प्रति उपेक्षा भाव में, जिसमें अपनी और पर की शुश्रूषा की अपेक्षा रहित समाधिमरण हो वहाँ प्रायोपगमन विधान है। इंगिनीमरण में जो सविस्तार विधि कही जायेगी वही प्रायोपगमन में भी समझनी चाहिए। इतनी विशेषता है कि यहाँ तृण के संस्तर का निषेध है, क्योंकि यहाँ स्व व पर दोनों के प्रयोग का अर्थात् शुश्रूषा आदि का निषेध है। ये मुनि अपने मूत्र व विष्ठा तक का भी निराकरण न स्वयं करते हैं और न अन्य से कराते हैं। सचित्त पृथिवी, अग्नि, जल, वनस्पति व त्रस जीवनिकायों में यदि किसी ने उनको फेंक दिया तो वे शरीर से ममत्व छोड़कर अपनी आयुसमाप्ति तक वहाँ ही निश्चल रहते हैं। इसी प्रकार यदि कोई उनका अभिषेक करे या गंध पुष्पादि से उनकी पूजा करे तो भी वे न उनके ऊपर क्रोध करते हैं, न प्रसन्न होते हैं और न ही उनका निराकरण करते हैं। जिसके ऊपर इन मुनि ने अपना अंग रख दिया है, उस पर से भी यावज्जीवन वे उस अंग को बिल्कुल हिलाते नहीं हैं। इस प्रकार स्व व पर दोनों के प्रतिकार से रहित इस मरण को प्रायोपगमन मरण कहते हैं। निश्चय से यद्यपि यह मरण अनीहार अर्थात् अचल है,