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आराधनासमुच्चयम् १५८
इन चार प्रकार के आहार (भोजन) का त्याग करना अनशन कहलाता है।
यह अनशन तप साकांक्ष और अनाकांक्ष के भेद से दो प्रकार का है। द्रव्य, क्षेत्र, कालादि के भेद से साकांक्षतप अनेक भेदों से युक्त है।
भक्त प्रत्याख्यान, इंगिनी मरण और प्रायोपगमन आदि के भेद से अनाकांक्ष अनशन तप तीन प्रकार का है।
कर्मों का क्षय करने के लिए भोजन के त्याग करने को अनशन तप कहते हैं।
यद्यपि भूखा रहना तप नहीं है, परन्तु शरीर की उपेक्षा हो जाने के कारण अथव अपनी चेतन वृत्तियों को भोजन आदि के बंधनों से मुक्त करने के लिए अथवा क्षुधादि में भी स्वकीय साम्यरस से च्युत न होने के लिए और आत्मबल की वृद्धि के लिए अशन (भोजन) का त्याग करना अनशन तप है।
जितकी इन्द्रियाँ और काश में है, जिसके हृदय में इस भव और परभव सम्बन्धी विषयसुख की अभिलाषा नहीं है, जो आत्मीय सुख का अभिलाषी है, जिसके हृदय में भूख-प्यास के कारण किंचित् भी खिन्नता नहीं है, जो निरंतर स्वाध्याय में लीन रहता है, "मेरी आत्मा स्वभाव से पौद्गलिक आहार से शून्य है। इन पौद्गलिक पदार्थों को अनन्त बार ग्रहण किया है, ये सर्व पदार्थ मेरे द्वारा भोग कर छोड़े हुए हैं, अत: उच्छिष्ट हैं, आत्मस्वभाव के घातक है" ऐसा विचार करके जो बाह्य पौद्गलिक पदार्थों के सेवन से विरक्त होता है उसके अनशन तप होता है।
वह अनशन तप वाला मन से भोजन करने का संकल्प नहीं करता, किसी को भोजन कराने का संकेत नहीं करता. वचन से किसी को भोजन कराने में प्रवृत्ति नहीं करता तथा मंत्रसाधन आदि किसी भी दृष्टफल की जिसमें वाञ्छा नहीं है, अपितु जिसमें कर्मों के क्षय का ही उद्देश्य है वही उत्तम अनशन तप
साकांक्ष तप का दूसरा नाम अवधृत काल वा अर्धानशन है अर्थात् जिसमें कुछ काल की मर्यादा करके आहार का त्याग किया जाता है इसलिए यह अवधृत काल है। इसमें कुछ काल के बाद भोजन की इच्छा है, इसलिए यह साकांक्ष है।
अनिशन या साकांक्ष तप के भी दो भेद हैं - ग्रहण काल और प्रतिसेवना काल।
दीक्षा ग्रहण करके जब तक संन्यास ग्रहण नहीं करे उसको ग्रहणकाल कहते हैं और व्रतों में अतिचार लगने पर प्रतिसेवना काल कहते हैं। इन काल में जो उपवास किया जाता है उसको अवधृतकाल, अर्धनशन या साकांक्ष व्रत कहते हैं अर्थात् व्रतादिक में अतिचार लगने पर जो प्रायश्चित्त से शुद्धि करने के लिए कुछ दिन अर्थात् षष्टम, अष्टम आदि अनशन करते हैं उसको प्रतिसेवना काल कहते हैं। वह अनशन दो प्रकार का होता है - सकृद्भुक्ति अर्थात् प्रोषध तथा दूसरा उपवास। दिन में एक बार भोजन करने को प्रोषध और भोजन के सर्वथा परिहार को उपवास कहते हैं। उसमें अवधृतकाल उपवास के चतुर्थ से लेकर पाण्मासिक