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आराधनासमुन्धयम् १५७
श्रावकों का अष्टमी-चतुर्दशी के दिन उपवास करना, रात्रि में भोजन नहीं करना, अष्ट मूलगुण धारण करना भी तप कहलाता है क्योंकि सम्यग्दृष्टि की यह क्रिया भी संवर और निर्जरा की कारण है।
ऋषियों ने बाह्याभ्यन्तर के भेद से तप दो प्रकार का कहा है - - जो बाह्य द्रव्य के अवलम्बन से होता है, दूसरों के दृष्टिगोचर होता है, बाह्य जन, अन्य मत वाले और गृहस्थ भी जिन तपों को करते हैं, उनको बाह्य तप कहते हैं।
जिनमें बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा नहीं है, जो अन्तःकरण के व्यापार से होते हैं, अन्य मतावलम्बियों से अनभ्यस्त और अप्राप्तपार हैं वे अभ्यन्तर तप कहलाते हैं अथवा रत्नत्रय के धारक मुनिजन ही जिनका आचरण करते हैं, वे प्रायश्चित्त आदि अभ्यन्तर तप कहलाते हैं। प्रायश्चित्तादि तपों में बाह्य द्रव्य की अपेक्षा नहीं रहती है। अन्तरंग परिणामों की मुख्यता रहती है तथा इनका स्वयं ही संवेदन होता है। ये देखने में नहीं आते तथा इनको अनाहत लोग धारण नहीं कर सकते, इसलिए प्रायश्चित्तादि को अन्तरंग तप माना है।
बाम तपों का कथन बाह्यं षडात्मकं स्यादनशनकादीनि तदभिधानानि । साकांक्षमनाकांक्षं चेत्यनशनमभिमतं द्वेधा॥१०३॥ द्रव्यक्षेत्रादिवशात् साकांक्षमनेकभेदसंयुक्तम् ।
त्रिविधमनाकांक्षमपि प्रायोपममादिभेदेन ।।१०४॥ अन्वयार्थ - तत् - वह। बाह्यं - बाह्य तप। अनशनकादीनि - अनशनादि। अभिधानानि - नाम से । षडात्मकं - छह प्रकार का । स्यात् - होता है। च - और । अनशनं - अनशन नामक तप । साकांक्षं - साकांक्ष और। अनाकांक्षं - अनाकांक्ष के भेद से । द्वेधा - दो प्रकार का। अभिमतं - माना
द्रव्यक्षेत्रादिवशात् . द्रव्य, क्षेत्र आदि के वश से। साकांक्षं - साकांक्ष अनशन। अनेकभेदसंयुक्तं - अनेक भेदों से युक्त है। अपि - और। अनाकांक्षं - अनाकांक्ष अनशन। प्रायोपगमादिभेदेन - प्रायोपगमादि के भेद से। त्रिविधं - तीन प्रकार का है।
अर्थ - बाह्य तप अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, वृत्तिपरिसंख्यान, विविक्त शय्यासन और कायक्लेश के भेद से छह प्रकार का है।
खाद्य - रोटी, दाल, भात आदि अन्नसंयुक्त पदार्थों को खाद्य कहते हैं। जिनके द्वारा मुख का स्वाद किया जाता है, ऐसे पान, सुपारी, इलायची आदि स्वाद्य कहे जाते हैं। जो चाटे जाते हैं, अंगुलियों से मुँह में रखे जाते हैं, वे चासनी, दूध की रबड़ी आदि लेह्य कहलाते हैं। जो पिये जाते हैं, ऐसे दूध, पानी, शरबत, फलों का रस, आदि पेय पदार्थ पेय कहलाते हैं।