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आराधनासमुच्चयम् १९५०
यथाख्यात चारित्र का कथन मोहानुदयादेकाकारमनोगुणचतुष्टये नित्यम् ।
उपशान्तकषायाद्ये भवति चरित्रं यथाख्यातम् ।।९४ ।। अन्वयार्थ - मोहानुदयात् - मोहनीय कर्म के उदय का अभाव होने से । एकाकारमनः - मन के एकाग्र होने पर। उपशांतकषायाद्ये - उपशांत कषाय है आदि में जिनके ऐसे। गुणचतुष्टये - चार गुणस्थान में। नित्यं - नित्य। यथाख्यातं - यथाख्यात नामक । चारित्रं - चारित्र । भवति - होता है।
अर्थ - जिस समय मोहनीय कर्म का उदय नष्ट हो जाता है, मोहनीय कर्म की सारी प्रकृतियों की उदयव्युच्छित्ति हो जाती है, चारित्रमोहनीय की सत्ता उपशांत हो जाती है या सत्ताव्युच्छित्ति होकर क्षय हो जाता है तब यथाख्यात चारित्र होता है। मन चार गुगों थिर हो जाने । अर्थात् निर्विकल्प समाधि की प्राप्ति होने पर मोहनीय कर्म का उपशम या क्षय हो जाता है तब यथाख्यात चारित्र है। इस संयम का प्रारंभ उपशातकषाय की आदि में होता है। यह चार गुणस्थानों में होता है।
समस्त मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय हो जाने पर आत्मा का शुद्धात्मा में आचरण होता है, उसको यथाख्यात चारित्र कहते हैं।
जैसा निष्कंप, सहज, शुद्ध, स्वभाव से कषाय रहित आत्मा का स्वरूप है वैसा ही आख्यात (कथन करने वाला) यथाख्यात चारित्र कहा जाता है। यह संयम कषायों के अभाव में होता है, इसलिए इसको वीतराग चारित्र भी कहते हैं। इसको अथाख्यात भी कहते हैं, क्योंकि कषायों के अभाव में होता है, अत: अथाख्यात है।
मोहनीय कर्म के उपशम से होने वाला यथाख्यात चारित्र ११वें गुणस्थान में ही होता है और मोहनीय कर्म के क्षय से होने वाले १२-१३-१४वें गुणस्थान में होता है, अतः इसका चार गुणस्थानों में सद्भाव पाया जाता है।
पाँच प्रकार के चारित्र के स्वामी, गुणस्थान और भावों का कथन आद्ये चरिते स्यातां प्रमत्तमुख्येषु वै गुणेषु चतुषु । परिहारार्द्धिर्गुणयोर्द्वयोः प्रमत्ताद्ययोरेव ॥१५॥ आद्यचरित्रद्वितयं ह्युपशममिश्रक्षयैर्भवेन्मध्यम् । क्षायोपशमिकमन्त्यं चोपशमक्षयभवं द्वितयम् ।।९६ ॥ क्षायोपशमिकमन्यद् देशचरित्रं तु पञ्चमे तु गुणे ।
नाना परिणामे गुणचतुष्टयेऽविरतिकौदयिकी॥१७॥ अन्वयार्थ - वै - निश्चय से। आडो - आदि के। चरिते - दो चारित्र, सामायिक और