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आराधनासमुच्चयम्१३१
गुप्ति निश्चय और व्यवहार के भेद से दो प्रकार की है।
सहज शुद्ध आत्मभावना रूप गुप्त स्थान में संसार के कारणभूत रागादिक के भय से अपनी आत्मा को छिपाना, प्रच्छादन करना, झंपना, प्रवेश करना या आत्मा की रक्षा करना निश्चय गुप्ति है अथवा जिसके बल से संसार के कारणों से आत्मा की रक्षा होती है। मिथ्यात्वादि आत्मीय शत्रुओं से रत्नत्रय स्वरूप
आत्मा को सुरक्षित रखने के लिए विषयाभिलाषा का त्याग किया जाता है वह निश्चय गुप्ति है। यह गुप्ति मन, वचन और काय के भेद से तीन प्रकार की है।
मनोगुप्ति - रागद्वेष से अवलम्बित सारे संकल्पों को छोड़कर अपने मन को स्वाधीन करना, रागद्वेष से मन का हटना तथा सकल राग-द्वेष-मोह से रहित होकर अखण्ड, अद्वैत, विद्रूप परमात्मा स्वरूप स्वकीय आत्मा में लीन होना निश्चय मनोगुप्ति है। अथवा वीतराग, निर्विकल्प, त्रिगुप्ति गुप्त, परम समाधि में लीन होना ही गुप्ति है।
___ वचनगुप्ति - असत्य भाषणादि से निवृत्त होना, वा वचन की प्रवृत्ति का सर्वथा निरोध करना और संज्ञा, संकेत आदि का त्याग करना, मौन धारण करना ववन गुप्ति है।
कायगुप्ति - औदारिक आदि शारीरिक क्रियाओं से निवृत्त होना, पाँच स्थावर और ब्रस जीवों की हिंसा से विरत होना, शरीर को स्थिर अचल करना, घोर उपसर्ग आने पर भी बाहुबली के समान शरीर से स्थिर रहना कायगुप्ति है।
जो निश्चय गुप्ति की साधक है उसको बाह्य गुप्ति कहते हैं। यह मन, वचन और काय के भेद से तीन प्रकार की है।
कलुषता, मोह, राग, द्वेष आदि अशुभ भावों के परिहार को व्यवहार नय से मनोगुप्ति कहा है। पाप के हेतुभूत ऐसे स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा, भक्तकथा इत्यादि रूप वधनों का परिहार अथवा असत्यादिक की निवृत्ति वाले वचन, वह वचन गुप्ति है। बन्धन, छेदन, मारण, आकुंचन (संकोचना) तथा प्रसारण (फैलाना) इत्यादि क्रियाओं की निवृत्ति को कायगुप्ति कहा है।
मन, वचन व काय की प्रवृत्ति का निरोध करके मात्र ज्ञाता, द्रष्टा भाव से निश्चय समाधि धारण करना पूर्ण गुप्ति है और कुछ शुभराग मिश्रित विकल्पों व प्रवृत्तियों सहित यथाशक्ति स्वरूप में निमग्न रहने का नाम आंशिक गुप्ति है। प्रवृत्ति अंश के साथ वर्तन के कारण यह व्यवहार गुप्ति है।
संयम - सम् सम्यक्प्रकार से 'यम' मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण करना संयम है। भाव संयम और द्रव्य संयम के भेद से संयम दो प्रकार का है। अंतरंग में कषाय भावों से उत्पन्न पंचेन्द्रिय विषयों की अभिलाषाओं का निरोध करना भाव संयम है और भाव संयम का आधार बाह्य में पंचेन्द्रिय विषयों का त्याग करना द्रव्य संयम है।
निश्चय और व्यवहार के भेद से संयम भी दो प्रकार का है।