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आराधनासमुच्चयम् १४४
अपने दोषों को प्रकट करके पुन: उन्हीं दोषों को करना तत्सेवी दोष है। आलोचना के इन १० दोषों से निरन्तर बचना चाहिए। इन दश से गुणा करने पर ८४००० भेद हैं।
शुद्धि के १० भेद - (१) आलोचना - एकान्त में विराजमान गुरु के समक्ष देश व काल को जानने वाले शिष्य के द्वारा निन्दा एवं गर्हापूर्वक आत्मदोषों को सविनय निवेदन करना आलोचना है।
(२) प्रतिक्रमण - अज्ञान या प्रमाद से लगे हुए दोषों को 'मिथ्या मे दुष्कृतम्' मेरे दोष गुरु के प्रसाद से मिथ्या होवें - ऐसा कहना प्रतिक्रमण है।
(३) उभय • अपने पापों का प्रक्षालन करने के लिए आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों करना उभय है। (४) विवेक - प्राप्त अन्न-पान और उपकरणादि का त्याग करना विवेक है। (५) व्युत्सर्ग - काल का नियम करके कायोत्सर्ग करना व्युत्सर्ग है। (६) तप - अनशनादि तप हैं। (७) छेद - चिरप्रव्रजित साधु की दिन, पक्ष, मास आदि दीक्षा का छेद करना छेद है। (८) परिहार - पक्ष, मासादि तक संघ से बाहर रहना परिहार है। (९) उपस्थापना - महाव्रतों का मूलोच्छेद करके पुन: दीक्षा देना उपस्थापना है। (१०) श्रद्धान - जीवादि तत्त्वों में श्रद्धान करना श्रद्धान या सम्यग्दर्शन है।
संयम के १० भेद - एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों की रक्षा करना ५ प्रकार का प्राणि-संयम है तथा पाँचों इन्द्रियों को वश में करना ५ प्रकार का इन्द्रिय संयम है। कुल मिला कर संयम के ये १० भेद हैं। इन सबको परस्पर गुणा करने पर चौरासी लाख उत्तर गुण होते हैं।
तीन गुप्ति - गुप्ति के तीन भेद हैं - (१) मनोगुप्ति, (२) वचन गुप्ति और (३) कायगुप्ति।
(१) मनोगुप्ति - रागद्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि अशुभ भावों से मन को मुक्त रखना मनोगुप्ति है।
(२) वचन गुप्ति - स्त्री सम्बन्धी, चोरी या भोजन सम्बन्धी कथन से एवं असत्य भाषण से विरत रहना वचनगुप्ति है।
(३) काय गुप्ति - छेदन, भेदन, ताड़न, मारण आदि कार्यों से विरत रहना कायगुप्ति है।
उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन और ब्रह्मचर्य रूप दशधर्म आदि विकल्पों से युक्त चारित्र को सन्त लोग छेदोपस्थापना चारित्र कहते हैं।
त्रिविधविकल्पसमन्वितसूक्ष्मासंख्येयलोकपरिणामैः । सदृशे ते चारित्रे व्यतिरेकाभावतो नित्यम् ।।८९॥