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आराधनासमुच्चयम् ११८
विवक्षा नहीं है। इस ऋजुसूत्र नय का पक्ष लेने से लोकव्यवहार का लोप भी नहीं होता है क्योंकि यहाँ तो ऋजुसूत्र नय के विषय का प्ररूपण करने की विवक्षा है। लोकव्यवहार तो सकल नय के समूह से साध्य है, एक नय के आधार पर नहीं।
अथवा कदाचित् मनुष्य की बुद्धि भूत और भविष्यत् के स्वप्नों को ठुकरा कर तात्कालिक लाभालाभ को ही स्वीकार करती है। भूतकालीन वस्तु विनष्ट हो जाने के कारण असत् है और भविष्यत् काल की वस्तु उत्पन्न न होने के कारण असत् रूप है इसलिए वह उपयोग में नहीं आती है। अत: वर्तमानकालीन समृद्धि ही वास्तव में समृद्धि है। जो धन नष्ट हो गया है या जो भविष्य में मिलेगा वह स्वप्न मात्र है। इस समय उसकी कोई सत्ता नहीं है। जो बुद्धि जब वर्तमान को ही सर्वस्व मानकर चलती है तो वह वर्तमान विषयक विचार ऋजुसूत्र कहलाता है।
शब्द नय - काल, लिङ्ग, कारक, संख्या, साधन और उपग्रह (उपसर्ग) के भेद से अर्थ को स्वीकार करने वाला शब्द नय कहलाता है। जैसे - 'विश्वदृश्वाऽस्य पुत्रो जनिता'। इस वाक्य में भूतकाल की क्रिया "विश्व दृष्टवान्" व्याकरणाचार्य इसका सम्बन्ध "भविता" भविष्यकाल के साथ लगायेगा कि विश्व को देख चुका है ऐसा पुत्र होगा । परन्तु शब्द नय उसमें भेद करेगा कि काल भेद है तो अर्थ भेद है। “विश्वं दृष्ट्वान् देख लिया है विश्व को जिसन ऐसा अय कला क्योंकि भावीकाल के साथ अतीत काल का विरोध है।
कारक दो प्रकार का है कर्तृवाच्य और कर्मवाच्य । शब्द नय कारकभेद से भी अर्थभेद स्वीकार करता है जैसे कर्तृवाच्य में वह पढ़ता है, वह करता है ऐसा वाक्य बनाया जाता है और कर्मवाच्य में पढ़ा जाता है, किया जाता है । यद्यपि इन दोनों में पठन क्रिया, करोति' क्रिया सामान्य है इसलिए इन पुरुष, तत् (वह) अन्य पुरुष भेद से साधन तीन प्रकार का है। उनमें कभी व्याकरण की दृष्टि से युष्मत् के स्थान पर अस्मत् का प्रयोग किया जाता है और अस्मत् के स्थान पर युष्मत् का परन्तु शब्द नय उसमें अर्थभेद करता है कि यह प्रयोग किस समय क्यों किया जाता है।
उपसर्ग - उप, वि, नि, सं आदि उपसर्ग के आने पर धातु में अर्थभेद को स्वीकार करने वाला शब्द नय है। जैसे 'स्था' धातु का अर्थ है ठहरना, उसका वर्तमान में तिष्ठ आदेश होता है, उसके पीछे सम्, प्र उपसर्ग लगा देने पर संतिष्ठते, प्रतिष्ठते क्रियाएँ बनती हैं। यद्यपि इन दोनों में 'स्था' धातु ही है परन्तु उपसर्ग के संयोग से शब्द नय उसमें भेद मानता है कि यद्यपि स्था' धातु का अर्थ ठहरना है तथापि सम् उपसर्ग से उसका अर्थ होता है - "संतिष्ठते मरता है, प्र उपसर्ग से प्रतिष्ठते - प्रस्थान करता है।" तिष्ठ के साथ में धातु परस्मैपदी है और उपसर्ग से आत्मनेपदी हो जाती है। शब्द नय इस प्रकार इनमें भेद स्वीकार करता है।
समभिरूढ़ नय - नानार्थान्समेत्याभिमुख्येन रूढः समभिरूढः - (प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ. २०६) अनेक अर्थों का आश्रय लेकर अभिमुखता से जो रूढ़ि है उसे समभिरूढ़ नय कहते हैं। शब्द नय