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आराधनासमुच्चयम १२७
३. सम्यक् चारित्राराधना जैनधर्म में आचार को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। किसी भी धर्म के अन्तस्तल को जानने के लिए उसके आचारमार्ग को जानना विशेष रूप से वांछनीय है क्योंकि आचारमार्ग के प्रतिपादन में ही धर्म का धर्मत्व सन्निविष्ट होता है। यथार्थ में, “आचार: प्रथमो धर्मः" आचार ही प्रथम धर्म है अतः द्वादशाङ्ग में प्रथम अंग आचाराङ्ग है। आचरण शुद्ध होने से विचार शुद्ध होते हैं और विचारों की शुद्धि से ही मुक्तिमार्ग सिद्ध होता है।
आचार या आचरण ही जैनधर्म की आधारशिला है। सर्वज्ञ, वीतराग जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रतिपादित आचरण-शुद्धि द्वारा ही संसार के दुःखों का नाश होता है। स्वयं तीर्थङ्कर भी चारित्र की साधना के द्वारा ही संसार के दुःखों से निवृत्त होते हैं और दुखी प्राणियों को दुःख की निवृत्ति का उपदेश देते हैं। संसार में जिधर भी दृष्टिपात करें, उधर ही दुःखसमुद्र की उत्तुंग तरंगों का भयावह नृत्य दिखाई देता है। दुःखसमुद्र को पार करने के लिए सम्यक् चारित्र यान के समान है। दुःख, मोह, क्षोभ, शोक आदि से सन्तप्त आत्मा का उद्धार कर परम पद को प्राप्त कराने में कारण चारित्र ही है।
प्रत्येक प्राणी की आत्मा में अनन्त शक्ति विद्यमान है, वह शक्तिरूप से परमात्मा है, परन्तु अनादिकाल से कर्मशृंखला से वेष्टित होने के कारण इस आत्मा का ज्ञानस्वभाव रूप सूर्य प्रकट नहीं हो रहा है। यह आत्मा किसी का दास या हीन अवस्था वाला नहीं है। यह स्वरूप से स्वतंत्र है, परन्तु अपनी भूल के कारण संसार रूपी भयानक अटवी में भ्रमण कर रहा है। मोहरूपी शत्रु ने इसे पराधीन कर दिया है। अपनी काषायिक वासना से ही यह संसार में कर्मों से बँधा हुआ है। इस दासता या पराधीनता से मुक्त होने का यदि कोई सर्वाङ्गीण उपाय है तो वह जिनेन्द्रकथित सम्यक्चारित्र ही है, यही लौकिक और पारलौकिक अभ्युदय का कारण है।
जिस प्रकार सतत प्रगतिशील, प्रवाहित होने वाली सरिता के प्रवाह को नियन्त्रित रखने के लिए दो तटों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार जीवन को नियन्त्रित, मर्यादित और प्रगतिशील बनाये रखने के लिए व्रतों की आवश्यकता है। जैसे किनारों के अभाव में सरिता का प्रवाह छिन्न-भिन्न हो जाता है वैसे ही चारित्रविहीन मानव की जीवनशक्ति भी छिन्न-भिन्न हो जाती है। अतएव जीवनशक्ति को केन्द्रित करने और योग्य दिशा में ही उसका उपयोग करने के लिए सम्यक्चारित्र की आवश्यकता है। वस्तुत: ज्ञान और श्रद्धान का सार शुद्धाचार है। मानव-जीवन में चारित्र का सर्वाधिक महत्त्व है। जीवन की ऊँचाई उसके ज्ञान या श्रद्धान से नहीं आंकी जा सकती, दिव्यता की ओर होने वाली यात्रा का मुख्य मापदण्ड चारित्र ही है। आत्मदर्शन और सहज स्वरूप की उपलब्धि सम्यक्चारित्र का ही फल है।
जिस प्रकार डोरी के बन्धन के साथ पतङ्ग आकाश में विहार करती है और उन्नत बनती है, उसी प्रकार सम्यक्चारित्र की डोरी में बंध करके ही मानव उन्नत बन सकता है। इसलिए स्वात्मोपलब्धि के कारणभूत सम्यक्चारित्र को धारण करने की परम आवश्यकता है।