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आराधनासमुच्चयम् १२५
मिट्टी के एक कण को ही लीजिए - एक-एक कण में अनन्तानन्त स्वभावों का सम्मिश्रण है, उस मिट्टी के कण का एक स्वरूप नहीं है, पर इट नहीं है, पटकही है। एक पुल बर्माकार भूखण्ड में किसान कभी कडुवी, तीखी, चरपरी मिर्च बोता है, कभी मधुर ईख बोता है, कभी सन्तरे एवं नींबू के पेड़ लगाता है। ये सभी पदार्थ मिट्टी के उन कणों में से ही अपना-अपना पोषण स्वाद रूप रस प्राप्त करते हैं। मिट्टी एक है - खाने में चाहे मिट्टी का स्वाद मिट्टी जैसा है तथापि भिन्न-भिन्न बीजों की शक्ति उसी मिट्टी में से अपनी शक्ति के अनुसार अपने स्वभावानुकूल अभीष्ट तत्व को खींच लेती है। ऐसी स्थिति में कोई कहे कि मिट्टी कटु ही है तो उसका यह कथन असत्य होगा अथवा कोई कहे कि मिट्टी का स्वाद एकरूप है तो यह भी आग्रह की जड़ता है, यद्यपि यह कथन द्रव्य की अपेक्षा सत्य हो सकता है तथापि गुण-पर्याय की अपेक्षा तो असत्य ही है।
जैसे एक ही पुरुष किसी का पिता, किसी का पुत्र, किसी का भाई, किसी का पति, श्वसुर, देवर, जेठ, मामा, भानजा, दादा और पोता होता है, दुकानदार, ग्राहक, साहूकार, देनदार, गुरु, शिष्य आदि न जाने कितने सम्बन्धों का अम्बार उस पर लदा है। इस प्रकार एक पुरुष के परस्पर विरोधी पिता-पुत्रत्वादि अनेक धर्म हमारे दृष्टिगोचर होते हैं, परन्तु अपेक्षाकृत भेद उन विरोधों का मथन कर देता है। जिस प्रकार पितृत्व और पुत्रत्वादि धर्म विभिन्न अपेक्षाओं से सुसंगत होते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ में सत्ता, असत्ता, नित्यता, अनित्यता, एकता, अनेकता आदि विरोधी धर्म भी विभिन्न अपेक्षाओं से सुसंगत हैं और उनमें कुछ भी विरोध नहीं है क्योंकि अनेकान्तवाद से सर्व सिद्ध हो जाता है।
___ यदि तत्त्व की विचारणा और सत्य की गवेषणा में सर्वत्र अनेकान्त दृष्टि स्वीकार की जाय तो सर्व संघर्ष, वाद-विवाद नष्ट हो जाय । अनेकान्त से ही समस्त दर्शनों की परम पूत प्रेरणा को बल मिलता है
और मानव की दृष्टि उदार, विशाल और सत्योन्मुखी बनती है। समाज और परिवार सभी अनेकान्त को स्वीकार करते हैं क्योंकि अनेकान्त एक ऐसी अनिवार्य तत्त्व व्यवस्था है जिसको स्वीकार किये बिना एक डग भी नहीं चला जा सकता; फिर भी आश्चर्य की बात है कि जगत् उसे स्वीकार नहीं करता है। ऐसा कौन ज्ञानी है जो मिट्टी आदि पदार्थों के नानात्व को स्वीकार नहीं करे क्योंकि एक ही मिट्टी घट, ईंट, प्याला, सकोरा आदि नाना रूपों में हमारे व्यवहार में आती है।
आम अपने जीवनकाल में अनेक रूप पलटता रहता है, कभी कच्चा, कभी पक्व, कभी हरा तो कभी पीला, कभी कठोर तो कभी मृदु, कभी खट्टा तो कभी मधुर होता है। ये आम की स्थूल अवस्थायें हैं क्योंकि एक अवस्था नष्ट होकर दूसरी अवस्था की उत्पत्ति में दीर्घकाल की अपेक्षा होती है, परन्तु उस बीच के दीर्घकाल में क्या वह आम जैसा-का-तैसा बना रहता है और अकस्मात् हरितवर्ण से पीतवर्ण और आम्ल से मधुर बन जाता है ? नहीं, वह आम प्रतिक्षण अपनी पर्यायें पलटता रहता है, किन्तु वे क्षणक्षण में पलटने वाली अवस्थायें इतने सूक्ष्म अन्तर को लिये हुए होती हैं कि हमारे ज्ञान में नहीं आतीं। जब वह अन्तर स्थूल हो जाता है, तभी हमारी बुद्धि के द्वारा ग्राह्य होता है।
इस प्रकार असंख्य क्षणों में असंख्य अवस्था-भेदों को धारण करने वाला आम अन्त समय तक आम ही बना रहता है।