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आराधनासमुच्चयम् १२६
सारांश यह है कि पदार्थ की मूल सत्ता एक होते हुए भी वह अनेक रूप धारण करती है। पदार्थ का मूल स्वरूप द्रव्य है और क्षण-क्षण में पलटने वाली उसकी अवस्थायें विशेष (पर्याय) हैं। इतना अवश्य है कि पर्याय को छोड़कर द्रव्य नहीं है और द्रव्य को छोड़कर पर्याय नहीं है। पर्याय और पर्यायी का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव एक है क्योंकि द्रव्य और पर्याय में तादात्म्य सम्बन्ध है तथापि पदार्थ का अंतरंग स्वरूप द्रव्य है और बहिरंग रूप पर्याग है अतरंग का उमप एक है, नित्य है, टंकोत्कीर्ण के समान अचल है, अपरिवर्तनशील है तथापि उसका बहिरंग रूप अनेकविध है, अनित्य है और परिवर्तनशील है। द्रव्य शक्तिरूप है और पर्याय व्यक्त रूप ।
द्रव्य परस्पर विरुद्ध अनन्त धर्मों का पिण्ड है चाहे वह चेतन हो या अचेतन हो, सूक्ष्म हो या स्थूल हो। सभी द्रव्यों में विरोधी धर्मों का अद्भुत सामंजस्य है। इसी सामंजस्य पर पदार्थों की सत्ता टिकी है। ऐसी स्थिति में वस्तु के किसी एक ही धर्म को अङ्गीकार करके तथा दूसरे धर्म का त्याग करके उसे आँकने का प्रयत्न करना हास्यास्पद है और अपूर्णता में परिपूर्णता मानकर सन्तोष कर लेना प्रवंचना मात्र है। सत् का कभी नाश नहीं होता है और न असत् का उत्पाद ही होता है, पर्याय में पर्यायान्तर होने पर भी द्रव्य के स्वरूप का नाश नहीं होता अत: वस्तु उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है। इस अनेक धर्मात्मक वस्तु के विचार में उठे हुए अनेकविध दृष्टिकोणों को समुचित रूप से समन्वित करने की आवश्यकता होती है। इसी आवश्यकता ने नयवाद की सरणी प्रस्तुत की है। वस्तु की सिद्धि करने के लिए नयों की उपयोगिता है।
___ नयों की सत्यता - जिस प्रकार प्रमाण सभ्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान की अपेक्षा प्रमाण और अप्रमाण के भेद से दो प्रकार का है उसी प्रकार प्रमाणांश नय भी सम्यक् नय और मिथ्या नय के भेद से दो प्रकार का है। द्रव्य के अनन्तअंशों में से सापेक्ष एक अंश को ग्रहण करने वाला सम्यक् नय है। यह सम्यक्नय ही वस्तु की सिद्धि करता है, मिथ्या नय वस्तु की सिद्धि नहीं करता है। किसी भी नय की यथार्थता इस बात पर अवलम्बित है कि वह दूसरे नय का विरोधी न होकर सापेक्ष है; जैसे आत्मा एक नय से नित्य और अबद्ध है और दूसरे नय से अनित्य है और अनादिकाल से कर्मों से बद्ध है क्योंकि आत्मा का आत्मत्व शाश्वत है। उसका कभी विनाश सम्भव नहीं है, इस दृष्टिकोण से आत्मा नित्य है परन्तु नित्य होते हुए भी नर-नारकादि अनेक पर्यायों रूप परिवर्तित होता रहता है, इस दृष्टिकोण से अनित्य भी है। इस प्रकार नित्य और अनित्य धर्मों को अपने-अपने दृष्टिकोण से नय ग्रहण करता है। यदि वह दूसरे नय का विरोध करके एकान्त रूप से नित्य या अनित्य को ग्रहण करता है तो वह मिथ्या एकान्त नय है, उससे वस्तु की सिद्धि नहीं होती है। इसलिए इस ग्रन्थ में आचार्यदेव ने कहा है कि परस्पर विरोध रहित सापेक्ष वस्तु के स्वरूप का कथन करने वाला सुनय है तथा परस्पर विरोध करके वस्तु के एक धर्म का कथन करने वाला दुर्नय है अर्थात् परस्पर सापेक्ष नय सुनय है और परस्पर निरपेक्ष नय दुर्नय है। इस प्रकार ज्ञान के भेद-प्रभेद जानकर आत्मस्वरूप पर दृढ़ विश्वास करना सम्यग्ज्ञानाराधना है।
॥ इति सम्यग्ज्ञान-आराधना-समाप्ता।।