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आराधनासमुच्चयम् १२८
कषाय और वासनाओं से उत्पन्न हिंसक परिणति का नाश सम्यक्चारित्र के बल पर ही होता है। विषयवासना के पंक से दूषित आत्मा रूपी चादर का प्रक्षालन सम्यक्चारित्र रूपी साबुन और ज्ञानरूपी निर्मल नीर से ही किया जाता है।
बसन्त के पवन का सम्पर्क पाकर वृक्षों में अंकुर निकल आते हैं, उसी प्रकार सम्यक्चारित्र का संयोग पाकर आत्मध्यान रूपी वृक्ष की कलियाँ खिल जाती हैं। सम्यक्चारित्र नीर की निर्मल धारा है। इसी से आत्मा के गहन प्रदेशों में शीतलता मिलती है। सम्यक्चारित्र जाज्वल्यमान अनि है। इसी से आत्मा के साथ बँधा हुआ अनादिकालीन कर्मरूपी ईंधन जलकर भस्म हो जाता है। इधर-उधर विषयवासनाओं में भटकते हुए मनरूपी हाथी को बाँधने के लिए सम्यक्चारित्र ही साँकल है।
सम्यक्चारित्रधारी मनुष्य केवल अपना ही कल्याण नहीं करता है, अपितु उसके आचरण से अन्य प्राणियों का जीवन भी सुरक्षित रहता है। सम्यक् चारित्रवान मनुष्य को पाकर वसुन्धरा पावन बन जाती है और उसके चरणों की रज प्राप्त कर नर-नारी धन्य हो जाते हैं । चारित्र मोक्षमार्ग का प्रधान अंग है। सम्यक्चारित्र के नामान्तर और लक्षण :
आत्मानुभूति के द्वारा भौतिक पदार्थों से भिन्न निज स्वरूप का श्रद्धान करता हुआ तथा तत्त्वों के स्वरूप को यथार्थ जानने वाला साधक अपनी आत्मा को रागद्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, कलों से निर्मल करने के लिए जो प्रयत्न करता है, यथार्थ में यही सम्यक्चारित्र है।
तत्त्वार्थ की प्रतीति के अनुसार क्रिया करना वा मन, वचन, काय से शुभ कर्मों में प्रवृत्ति करना चारित्र है। जिससे हित की प्राप्ति और अहित का परिहार किया जाता है अथवा सज्जन पुरुष जिसका आचरण करते हैं, वह चारित्र सम्यक्चारित्र कहलाता है। संसार की कारणभूत बाह्य और अभ्यन्तर क्रियाओं से निवृत्त होना चारित्र है । सर्व सावद्ययोग से विरक्त होना चारित्र है। वही चारित्र सर्वकषायों से रहित, विषयों से विरक्त रूप होने से निर्मल आत्मा का स्वरूप है। पापास्रव के कारणभूत हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँचों पापों से विरक्त होना ही सम्यक्चारित्र है।
वास्तव में, सम्यक्चारित्र का लक्षण है मोह (दर्शनमोह), क्षोभ ( राग-द्वेष) रहित परिणाम । जितने अंश में सम्यग्दर्शन सहित राग द्वेष की परिणति हीन होती है उतने अंश में चारित्र प्रकट होता है।
चारित्र के भेद कषायों के मन्द मन्दतर अभाव के कारण चारित्र के भी अनेक भेद होते हैं। सामान्य से चारित्र मोहनीय के उपशम, क्षय और क्षयोपशम से होने वाली आत्मविशुद्धि की दृष्टि से चारित्र एक है। बाह्याभ्यन्तर निवृत्ति वा व्यवहार निश्चय के भेद से एवं प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम की अपेक्षा भी चारित्र दो प्रकार का है।
औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से चारित्र तीन प्रकार का है अथवा उत्कृष्ट, मध्यम एवं जघन्य विशुद्धि की अपेक्षा भी तीन प्रकार का है। चतुर्याम की अपेक्षा चार प्रकार का है।