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आराधनासमुच्चयम् ११७
प्ररूपण करना व्यवहार नय है। जिस प्रकार पर-संग्रह नय के द्वारा सत् धर्म के आधार पर 'सर्वं एक सत्त्वत्वात्' सर्व सत्त्व का एकत्व से संग्रह किया है, व्यवहार उसमें भेद करता है कि जो 'सत्' है वह द्रव्य है तथा पर्याय है, उसी प्रकार 'अपर संग्रह' 'सर्व द्रव्याणि द्रव्यं सारे द्रव्यों को द्रव्य रूप से - सारी पर्यायों को पर्याय रूप से संग्रह करता है, व्यवहार उनमें विभाग करता है। जो द्रव्य है वह जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल के भेद से छह प्रकार का है।
जो पर्याय है वह सहभावी और क्रमभावी के भेद से दो प्रकार की है। इस प्रकार व्यवहार नय का प्रपंच ऋजुसूत्र के पूर्व और पर-संग्रह के उत्तर मध्य में जानना चाहिए। क्योंकि समस्त वस्तुओं का स्वरूप कथञ्चित् सामान्य-विशेषात्मक ही सम्भव है। इस प्रकार द्रव्य और पर्यायों का भेद करने वाला होने से व्यवहार नय को नैगम नय का भी प्रसंग नहीं आता है क्योंकि संग्रह नय के विषय का विभाजन करना व्यवहार नय का कार्य (विषय) है और गौण व संकल्प मात्र से पर्याय और द्रव्य - इन दोनों को ग्रहण करना नैगम नय का विषय है। अथवा पदाथों में रहने वाले विशेष अर्थात् भेद करने वाले धों को प्रधान करके उनमें भेद स्वीकार करने का दृष्टिकोण व्यवहार नय है।
__ अभेद की प्रधानता पर संग्रहनय चलता है परन्तु अभेद से लोकव्यवहार चलना अशक्य है। चेतनअचेतनात्मक द्रव्य सत्ता की समानता के कारण यद्यपि एक है तथापि अचेतन चेतन नहीं है क्योंकि चेतना तो आत्मा में ही है, इसलिए दोनों में पृथक्ता भी वास्तविक है। मनुष्यत्व सामान्य की अपेक्षा मानव मात्र एक है तथापि मानव-मानव में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने वाला अन्तर (भेद) भी वास्तविक है। जैसे पुद्गल द्रव्य सामान्य की अपेक्षा दूध और पानी एक हैं तथापि अनुभव एवं कार्यों में आने वाला उन दोनों का भेद वास्तविक है। इस प्रकार पृथक्-पृथक् करने वाला दृष्टिकोण व्यवहार नय है।
__ अभेद से लोकव्यवहार नहीं चल सकता । लोकव्यवहार के लिए भेद की आवश्यकता होती है जैसे संग्रह नय की अपेक्षा से दूध और घी एक है परन्तु दूध के स्थान पर घृत और घृत के स्थान पर दूध से कार्य नहीं चलता इसलिए दूध और घृत में भेद है तथा कार्य में आने वाले उस भेद को स्वीकार करना ही व्यवहार नय है।
ये तीनों नय साधारणतया प्रधानता से द्रव्य को ही ग्रहण करते हैं अतएव इनको द्रव्यार्थिक नय कहा गया है अथवा जहाँ पर कालकृत भेद होता है उसे पर्यायार्थिक नय और द्रव्यों का गुणपर्याय कृत भेद होता है उसे द्रव्यार्थिक नय कहते हैं। इन तीनों नयों में द्रव्यों के पर्यायकृत भेद होते हुए भी कालकृत भेद नहीं है - इसलिए ये द्रव्यार्थिक हैं।
ऋजुसूत्र नय - व्यक्त (स्पष्ट) वर्तमान पर्याय मात्र का 'सूत्रयति' ज्ञान कराता है, वह ऋजुसूत्र नय है अर्थात् शुद्ध एक समय की पर्याय को ग्रहण करने वाला ऋजुसूत्र है। जैसे पर्याय क्षणिक है। सुख, दुःख एक समयवर्ती है इत्यादि द्रव्य के सत् की इस नय में विवक्षा नहीं है क्योंकि अतीत क्षण तो नष्ट हो गया है और भावी क्षण अनुत्पन्न है इसलिए भूत और भावी पर्यायों की असम्भवता होने से इस नय में इनकी