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आराधनासमुच्चयम् ९८
एक मध्यम पद नहीं होता इसलिए इतने अक्षरों का ही प्रमाण अंग बाहा बताया है तथा इन अक्षरों को लेकर आरातीय पुरुषों ने 'चतुर्विंशति स्तवन' आदि १४ प्रकीर्णकों की रचना की है-अतः ये अंगबाह्य कहलाते हैं। इस प्रकार संक्षेप से श्रुतज्ञान का कथन किया है।
मतिजश्रुतजे ज्ञाने सदृशे ते सर्वदाप्यविच्छेदात् ।
तद् द्वितयमपि परोक्षं मतिजं व्यवहारतोऽध्यक्षम् ॥६९॥ अन्वयार्थ - मतिजश्रुतजे - मति और श्रुत । ज्ञाने - दोनों ज्ञान । सदृशे - सदृश हैं। सर्वदा - निरन्तर । अपि - भी। अविच्छेदात - अविच्छेद रूप से है। तद् - वह। द्वितीयं - श्रुतज्ञान तो । परोक्षपरोक्ष ही हैं। अपि - परन्तु। मतिजं - मतिज्ञान । व्यवहारतः - व्यवहार से । अध्यक्ष - प्रत्यक्ष। अपिभी है॥१९॥
अर्थ - मतिज्ञान और श्रुतज्ञान सदृश हैं क्योंकि ये दोनों ज्ञान सर्वकाल में आत्मा में अविच्छेद रूप से रहते हैं। उन दोनों ज्ञानों में श्रुतज्ञान तो परोक्ष ही है परन्तु मतिज्ञान एकदेशप्रत्यक्ष भी है। क्योंकि जिस प्रकार मतिज्ञान मानसिक प्रत्यक्ष और इन्द्रियप्रत्यक्ष होता है या अपने आत्मस्वरूप को जानने के लिए स्वसंवेदनप्रत्यक्ष है वैसा श्रुतज्ञान नहीं है, इसलिए मतिज्ञान को प्रत्यक्ष भी कहा है तथा न्यायग्रन्थों में मतिज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है क्योंकि यह ज्ञान व्यवहार में मैंने इसको साक्षात् देखा है, यह काम करते मैंने इसका प्रत्यक्ष अनुभव किया है कि यह आदमी कैसा है, इत्यादि का व्यवहार होता है।
___ अवधिज्ञान के भेदप्रभेद और उनका लक्षण रूपिद्रव्यनिबद्धं देशप्रत्यक्षमवधिविज्ञानम्। देशावधि-परमावधि-सर्वावधि-भेदतस्त्रिविधम् ॥७॥ देशावधिविज्ञानं भवगुणकारणतया द्विधा भवति। तत्रैकैकं त्रिविधं जघन्यमध्योत्तमविकल्पात् ॥७१ ॥ द्रव्यं क्षेत्रं कालं भावं च प्रति जघन्यमध्यपरम् । मध्यमसंख्यातविधं शेषद्वितयं तदैकैकम् ॥७२॥ गुणकारण तिर्यङ्मर्येषु विकल्पतस्तु षड्भेदम् । भवकारणजं नारकदेवेषु बहुप्रभेदं तत् ॥७३॥ प्रादेशिकं तु गौण्यं भवकारणमविकलात्मदेशभवम् । प्रतिपाति लोकमानं ह्यप्रतिपाति तु ततोऽभ्यधिकम् ॥७४॥ गुणकारणस्य नाभेरुपरि भवन्ति हि शुभानि चिलानि । श्रीवृक्षादीनि स तैनॆत्रेणेव स्फुटं पश्येत् ।।७५ ॥