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आराधनासमुच्चयम् ९७
बाईस परिषहों के सहन करने की विधि क्या है, उपसर्ग एवं परीषहों को सहन करने से क्या फल प्राप्त होता है, इत्यादि प्रश्नों का उत्तर गुरु, शिष्यों के लिए देते हैं तथा प्रश्नों के उत्तर जिसमें पढ़े जाते हैं, प्रश्नों का अध्ययन किया जाता है, वह अष्टम उत्तराध्ययन नामक प्रकीर्णक कहलाता है।
__अचेलकत्व, उद्दिष्ट भोजन का त्याग, शय्याग्रहण, वसतिका बनाने वाले वा सुधारने वाले के घर के आहार का त्याग, राजपिण्ड त्याग, कृतिकर्म, साधुओं की सेवा विनय करना। व्रत - जिसको व्रत का स्वरूप ज्ञात है, उसमोर देना । जोन • अपने से बड़े साों की योग्य विनय करना। प्रतिक्रमणप्रतिदिन लगे हुए दोषों का निराकरण करना। मासैकवासता - चातुर्मास को छोड़कर शेष समय में एक महीने से अधिक एक स्थान में नहीं रहना । वर्षाकाल में चार मास एक स्थान में रह सकते हैं, इत्यादि रूप से कल्प्य का कथन जिसमें है, वह कल्प्य व्यवहार प्रकीर्णक (शास्त्र) कहलाता है।
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का आश्रय लेकर ये मुनियों के कल्प्य करने योग्य हैं, ये अकल्प्य (नहीं करने योग्य) हैं। इस प्रकार का वर्णन जिसमें है, वह कल्प्याकल्प्य प्रकीर्णक कहलाता है।
आहार-विहार आदि क्रिया में कौनसी क्रिया करने योग्य है, आहार के योग्य कौन से घर हैं, अभोज्य घर में आहार नहीं करना चाहिए, आदि क्रियाओं का वर्णन इसमें किया जाता है।
कौनसा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आश्रय लेने योग्य है; किस द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का त्याग किया जाता है, आदि का कथन इसमें पाया जाता है।
काल और संहनन का आश्रय कर साधुओं के योग्य द्रव्य, क्षेत्रादिक का जो वर्णन करता है वा जिसमें उत्कृष्ट संहननादि विशिष्ट द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का आश्रय लेकर प्रवृत्ति करने वाले, जिनकल्पी साधुओं के योग्य त्रिकाल योग आदि अनुष्ठान का और स्थविरकल्पी साधुओं की दीक्षा-शिक्षा, गणपोषण, आत्मसंस्कार, सल्लेखना, उत्तम स्थान, गति, उत्कृष्ट आराधना आदि का विशेष वर्णन है, वह महाकल्प्य कहलाता है।
पुण्डरीक भवनवासी आदि चार प्रकार के देवों में उत्पत्ति के कारणरूप दान, पूजा, तपश्चरण आदि अनुष्ठानों का वर्णन करता है। महापुण्डरीक समस्त इन्द्रों और प्रतीन्द्रों में उत्पत्ति के कारणरूप तपोविशेष आदि आचरण का वर्णन करता है।
प्रमादजनित दोषों का परिहार करने के लिए निषिद्धिका शास्त्र का कथन है। यह कालादिभाव से प्रायश्चित्त विधान का कथन करता है।
ये चौदह प्रकीर्णक अंगबाह्य कहलाते हैं।
एक मध्यम पद में सोलह सौ चौंतीस करोड़ तिरासी लाख सात हजार आठ सौ अठासी अक्षर होते हैं। समस्त मध्यम पदों के जितने अक्षर हुए वे अंगप्रविष्ट अक्षर हैं और शेष अक्षर रहे वे अंगबाह्य अक्षर हैं। अंगबाह्य अक्षरों का प्रमाण आठ करोड़ एक लाख आठ हजार एक सौ पचहत्तर है। इतने अक्षरों से