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आराधनासमुच्चयम् ७१०१
जो अवधिज्ञान परिणाम की विशुद्धि से सूर्य के प्रकाश के समान देशान्तर में जाने वाले के साथ जाता है वह अनुगामी है। विशुद्धि के नहीं होने से जो देशान्तर में साथ नहीं जाता, वहीं रह जाता है; जैसे शून्य हृदय वाले पुरुष का किया गया प्रश्न वहीं समाप्त होता है अर्थात् उस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता, ऐसी अवधि अननुगामी है।
जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर जीव के साथ जाता है वह अनुगामी अवधिज्ञान है। वह तीन प्रकार का है - क्षेत्रानुगामी, भवानुगामी और क्षेत्रभवानुगामी। उनमें से जो अवधिज्ञान एक क्षेत्र में उत्पन्न होकर स्वतः या पर-प्रयोग से जीव के स्वक्षेत्र व परक्षेत्र में विहार करने पर विनष्ट नहीं होता है, वह क्षेत्राननगामी अवधिज्ञान है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर उस जीव के साथ अन्य भव में जाता है वह भवानुगामी है। जो भरत, ऐरावत और विदेह आदि क्षेत्रों में तथा देव, नारक, मनुष्य भव में भी साथ जाता है, वह क्षेत्रभवानुगामी अवधिज्ञान है। जो अननुगामी अवधिज्ञान है वह तीन प्रकार का है - क्षेत्राननुगामी, भवाननुगामी और क्षेत्रभवाननुगामी । जो क्षेत्रान्तर के साथ नहीं जाता, भवान्तर में ही साथ जाता है वह क्षेत्राननुगामी अवधिज्ञान कहलाता है। जो भवान्तर में साथ नहीं जाता; क्षेत्रान्तर में ही साथ जाता है वह भवाननुगामी अवधिज्ञान है। जो क्षेत्रान्तर और भवान्तर दोनों में साथ नहीं जाता किन्तु एक ही क्षेत्र और भव के साथ सम्बन्ध रखता है वह क्षेत्रभवाननुगामी अवधिज्ञान कहलाता है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर निर्मूल विनाश को प्राप्त होता है वह सप्रतिपाती अवधिज्ञान है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर केवलज्ञान के उत्पन्न होने पर ही विनष्ट होता है, अन्यथा विनष्ट नहीं होता वह अप्रतिपाती अवधिज्ञान है।
जिस अवधिज्ञान का कारण जीवशरीर का एकदेश होता है, वह एकक्षेत्रअवधिज्ञान है। जो अवधिज्ञान प्रतिनियत क्षेत्र के बिना शरीर के सब अवयवों में रहता है वह अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान है। इसमें लोकाकाशप्रमाण अवधिज्ञान प्रतिपाती है और प्रतिपाती से अत्यधिक अप्रतिपाती है।
गुणप्रत्यय अवधिज्ञान नाभि के ऊपर श्रीवृक्षादि अनेक शुभ चिह्नों से उत्पन्न होता है, उसी स्थानरूपी नेत्र के द्वारा अवधिज्ञानी पदार्थों को देखता है, जानता है।
भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव, नारकी और तीर्थकर के होता है तथा यह भवप्रत्यय सर्वांग से उत्पन्न होता है, परन्तु गुणप्रत्यय अवधिज्ञान मनुष्य-तिर्यंचों के होता है। यह एक स्थान से उत्पन्न होता है, नाभि के ऊपर शंख, कमल, स्वस्तिक, श्रीवृक्ष, ध्वज, कलश, नन्द्यावर्त, हल, श्रीवत्स आदि शुभ चिह्नों से उत्पन्न होता है। अर्थात् गुणप्रत्यय अवधिज्ञान की उत्पत्ति के संस्थान होते हैं। एक जीव के एक ही स्थान में अवधिज्ञान का करण होता है, ऐसा नियम नहीं है क्योंकि किसी भी जीव के एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह आदि क्षेत्ररूप श्रीवृक्षादि शुभ संस्थान संभव हैं। ये संस्थान तिर्यंचों और मनुष्यों के नाभि के उपरि भाग में होते हैं, नीचे के भाग में नहीं होते। क्योंकि नाभि के नीचे शुभ संस्थान नहीं होते।